प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “खून के रिश्तों में भी अब खून की गर्मी नहीं …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #115 ☆  ग़ज़ल  – “खून के रिश्तों में भी अब खून की गर्मी नहीं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दूर अपनों से ही अपने हो गये अब इस कदर

सुख-दुखों की उनकी खबरों तक का होता कम असर।

 

दुनिया तो छोटी हुई पर बटीं दिल की दूरियाँ

रिश्तेदारों को बताने के लिये है नाम भर।

 

नहीं रह गई रिश्तेदारों की कोई परवाह अब

अकेले ही चल रहा है हरेक जीवन का सफर।

 

खून के रिश्तों में भी अब खून की गर्मी नहीं

फोन पर भी बात करने की न कोई करता फिकर

 

दरारें दिखती हैं हर परिवार की दीवार में

दूर जाकर बस गये हैं लोग इससे छोड़ घर।

 

अपनी-अपनी राह सब चलने लगे नई उम्र के

बड़े बूढ़ों का न ही आदर रहा न कोई डर।

 

हर एक का आहत है मन संबंधियों की चाल से

सह रहे चुपचाप पर मन मारके करके सबर

 

समय संग है फर्क आया सभी के व्यवहार में

हर जगह चाहे हो कस्बा, गाँव या कोई शहर।

 

जमाने की हवा नें बदला है सबको बेतरह

होके नाखुश भी किसी से कोई नहीं सकता बिफर

 

मानता मन जब नहीं उठती है ममता की लहर

पूंछ लेते दूसरों से अपनों की अच्छी खबर। 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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