प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “परेशां देख के तुमको…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #116 ☆  ग़ज़ल  – “परेशां देख के तुमको…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मुझे जो चाहते हो तुम, तुम्हारी ये मेहरबानी

मगर कोई बात मेरी तुमने अब तक तो नहीं मानी।

 

परेशां देख के तुमको मुझे अच्छा नहीं लगता

जो करते प्यार तो दे दो मुझे अपनी परेशानी।

 

तुम्हें संजीदा औ’ चुप देख मन मेरा तड़पता है

कहीं कोई कर न बैठे बख्त हम पर कोई नादानी।

 

मुझे लगता समझते तुम मुझे कमजोर हिम्मत का

तुम्हारी इस समझदारी में दिखती मुझको नादानी।

 

हमेशा अपनी कह लेने से मन का बोझ बँटता है

मगर मुझको बताने में तुम्हें है शायद हैरानी।

 

मुसीबत का वजन कोई सहारा पा ही घटता है

तुम्हारी बात सुनने से मुझे भी होगी आसानी।

 

जो हम तुम दो नहीं है, एक हैं, तो फिर है क्या मुश्किल?

नहीं होती कभी अच्छी किसी की कोई मनमानी।

 

नहीं कोई, जमाने में मोहब्बत से बड़ा रिश्ता

तुम्हरी चुप्पियां तो हैं मोहब्बत की नाफरमानी।

 

परेशां हूँ  तुम्हारी परेशानी और चुप्पी से

’विदग्ध’ दिल की बता दोगे तो हट सकती परेशानी।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest


0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments