श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – बसंत”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 67 – मनोज के दोहे – बसंत ☆
शिशिर काल में ठंड ने, दिखलाया वह रूप।
नदी जलाशय जम गए, तृण हिमपात अनूप।।
स्वागत है ऋतुराज का, छाया मन में हर्ष।
पीली सरसों बिछ गई, बैठें-करें विमर्ष।।
माह-जनवरी, छब्बीस, बासंती गणतंत्र।
संविधान के मंत्र से, संचालन का यंत्र।।
आम्रकुंज बौरें दिखीं, करे प्रकृति शृंगार।
कूक रही कोयल मधुर, छाई मस्त बहार।।
वासंती मौसम हुआ, सुरभित बही बयार ।
मादक महुआ सा लगे, मधुमासी त्यौहार।।
ऋतु वसंत की धूम फिर, बाग हुए गुलजार।
रंग-बिरंगे फूल खिल, बाँट रहे हैं प्यार।।
टेसू ने बिखरा दिए, वन-उपवन में रंग।
आँगन परछी में पिसे, सिल-लौढ़े से भंग।।
है बसंत द्वारे खड़ा, ले कर रंग गुलाल।
बैर बुराई भग रहीं, मन के हटें मलाल।।
मौसम में है छा गया, मादकता का जोर।
मन्मथ भू पर अवतरित, तन में उठे हिलोर।।
मौसम ने ली करवटें, दमके टेसू फूल।
स्वागत सबका कर रहे, ओढ़े खड़े दुकूल।।
परिवर्तन पर्यावरण, देता शुभ संदेश।
हरित क्रांति लाना हमें, तब बदले परिवेश।।
पलाश कान में कह उठा, खुशियाँ आईं द्वार ।
राधा खड़ी उदास है, कान्हा से तकरार ।।
हँस कर कान्हा ने कहा, चल राधा के द्वार ।
हँसी ठिठोली में रमें, अब मौसम गुलजार।।
गुवाल-बाल को सँग ले, कृष्ण चले मनुहार।।
होली-होली कह उठे, दी पिचकारी मार ।।
सारी चुनरी रँग गई, भींगा तन रँग लाल।
आँख लाज से झुक गईं, खड़े देख गोपाल।।
नव भारत निर्माण से, बिखरा नया उजास।
शत्रु पड़ोसी देख कर, मन से बड़ा उदास।।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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