डॉ. सलमा जमाल
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतंत्र कविता “पुनर्जन्म…”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 53
स्वतंत्र कविता – पुनर्जन्म… डॉ. सलमा जमाल
रुकती हुई ,
सांसों के बीच
कल सुना था मैंने
कि तुम ने कर ली है
” आत्महत्या “
इस कटु सत्य का
हृदय नहीं कर पाता विश्वास !
” राजन्य “
तुम कब हुए हताश – निराश “
स्वेच्छा से बन गए काल ग्रास ।।
अंकित किया केवल एक प्रश्न ,
क्यों ? केवल क्यों ?
इतना बता सकते हो ,
तो बताओ ।
क्यों त्यागा ? रम्य जगत को ?
क्यों किया मृत्यु का वरण ?
अनंत – असीम जगती में क्या ?
कहीं भी ना मिलती तुम्हें शरण ?
अपनी वेदना तो कहते,
शून्य- शुष्क , रिक्त जीवन ,
की व्यथा ओढ़ लेती
तुम्हारी जननी ,
शित-शिथिल भावों को बांट लेते ,
भ्राता – भागीदार –
शैशवावस्था में तुम्हें
गीले से सूखे में लिटाती ,
शीर्ष चूमती रही बार-बार ,
रात्रि में जाग – जागकर,
बदलती रही वस्त्र ,
तब तुम बने रहे सुकुमार ,
वेदना की व्यथा ,
आंचल में समेट लेती ,
काश!जननी से कहते तो एक बार।।
” परन्तु “
तुम शिला के भांति रहे निर्विकार ,
स्वार्थी , समयाबादी और गद्दार ,
तभी वृद्ध – जर्जर हृदयों पर ,
कर प्रहार
सांझ ढले उन्हें छोड़ा मझदार ,
रिक्त जीवन दे ,
चल पड़े अज्ञात की ओर ,
बनाने नूतन विच्छन्न प्रवास ।।
क्यों कर आया किया
यह घृणित कार्य ,
क्या इतना सहज है ,
त्यागना संसार ,
काश ! तुम कर्मयोगी बनते
मां के संजोए हुए सपनों को बुनते ,
प्रमाद में विस्तृत कर ,
अपना इतिहास ,
केवल बनकर रह गए उपहास ।।
“आत्महत्या “
आवेश है एक क्षण का ,
पतीली पर से भाप की ,
शक्ति से ऊपर उठता हुआ ढक्कन ,
जो भाप के निकल जाने पर ,
पुनः अपने स्थान पर हो
जाता है स्थित ,
काश ! भाप सम तुम भी ,
निकाल देते उद्वेलित
हृदय का आवेश और फिर ,
ढक्कन की भांति अपना ,
स्थान बनाने का करते प्रयास ,
तब तुम आत्महत्या ना
कर पाते अनायास।।
तुमने सुना होता जननी
का करुण – क्रंदन ,
पिता का टूट कर बिखरना,
भ्राताओं की चीत्कार ,
दोस्तों की आंखों का सूनापन ,
आर्तनाद करते प्राकार ,
तब संभव था कि तुम फिर
व्याकुल हो उठते
पुनःजन्म लेने के लिए ,
पुनर्जन्म के लिए ।।
© डा. सलमा जमाल
298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈