श्री केशव दिव्य
☆ कविता ☆ “वही अंधेरा” ☆ श्री केशव दिव्य ☆
(काव्य संग्रह – “स्नेहगंधा माटी मेरी” – से एक कविता)
☆
[एक]
धूल उड़ाती
चली जाती हैं
जीप और कारें वापस
इधर कोरवा
देखने लगता है
सपने
कि सरई और
सागौन की डारा से
उतरने लगी है
सोनहा किरन
बिखरने लगा है
अँजोर सा
सीलन भरी अंधेरी
कुरिया में उसकी
फिर
उड़ने लगता है वह
यकायक आकाश में
ऊंचा,ऊंचा और ऊंचा
कि अचानक
गिर पड़ता है
ऊँचाई से नीचे
धड़ाम!
वह जाग उठता है
हाँफने लगता है
भय से
प्यास से
गला उसका
सूखने लगता है
माथे पर पसीना
चुहचुहा आता है
वह बड़बड़ाता है
जाने क्या-क्या
जंगल की भाषा में?
वह पाता है
वही घुप्प अंधेरा
चारों ओर!
[दो]
उन
हरे-भरे सपनों को
खोजता है कोरवा
पहाड़ के नीचे
सरकार की ओर से
मिले मकान में
पर यहाँ
सपने हैं न रंग
हैं तो बस
वही आदिम अंधेरा
अभाव,बदहाली, बीमारी
और भूखमरी!
© श्री केशव दिव्य
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈