सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ कृष्णस्पर्श भाग-2 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

अब बापू के मित्र भी उसे छोड़ गए थे। बापू के पास कुछ भी बचा नहीं था। खेत चिड़िया चुग गई थी। बाद में बापू बीमार हो गए। साँस लेना भी दुष्कर हो गया। जितना हो सके, माई पत्नी का कर्तव्य निभाती रही। बापू की सेवा करती रही, किन्तु पति-पत्नी में प्यार का रिश्ता कभी बना ही नहीं था। अपने जीवन का अर्थ तथा साफल्य माई ने कीर्तन में ही खोजा। उनका सूनापन कीर्तन से ही दूर होता रहा।

ऐसे में एक दिन बापू का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास या नरकवास पता नहीं, किन्तु बापू चल बसे। माई अब एकदम नि:संग हो गई। ऐसे नालायक, गैर जिम्मेदार पति से कोई संतान नहीं हुई, इस बात की उन्हें खुशी ही थी। ससुराल की किसी भी बात की निशानी न रहे, एसलिए वाई का घर-बार बेचकर वह हमेशा के लिए नासिक चली गई।

सुश्री मानसी काणे

माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। उनका नाम हो गया। कीर्ति बढ़ गई। हर रोज कहीं ना कहीं कीर्तन के लिए आमंत्रण आता था, या आने-जाने में दिन गुजरता था। आज देशमुख जी के मंदिर में उनका कीर्तन है। निरूपण के लिए उन्होंने संत चोखोबा का अभंग चुना था।

उस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा॥

(ऊस टेढ़ा-मेढ़ा होता है। मगर उस का रस टेढ़ा-मेढ़ा नहीं होता, ऐसे में तुम ऊपरी दिखावे पर क्यों मोहित हो रहे हो?)

नदी डोंगी परि जल नाही डोंगे।

(नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, पर जल टेढ़ा नहीं होता।)

देखते देखते पूरा सभामंडप कुसुम के सुरों के साथ तदाकार हो गया। सुरीली, साफ, खुली खड़ी आवाज, फिर भी इतनी मिठास, मानो कोई गंधर्वकन्या गा रही हो। श्रोताओं को लगा, यह गाना पार्थिव नहीं, स्वर्गीय है। ये अलौकिक स्वर जिस कंठ से झर रहे हैं, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य देहधारी कोई शापित गंधर्वकन्या है।

कुसुम गंधर्वकन्या नहीं थी, किन्तु शापित जरूर थी।

कुसुम माई की मौसेरी ननद की बेटी थी। वह पाँच छ: साल की थी, तब उसकी माँ दूसरे बच्चे को जन्म देनेवाली थी। प्रसूति के समय माँ अपने जने हुए नवशिशु को साथ लेते हुए चल बसी। कुछ सूझ-बूझ आने के पहले ही घर की जिम्मेदारी कुसुम के नाजुक कंधों पर आ पड़ी। कली हँसी नहीं, खिली नहीं। खिलने से पहले ही मुरझा गई। वह दस साल की हुई नहीं, कि एक दिन पीलिया से, उसके पिता की मौत हुई। उसके बाद तो, उसके होठ ही सिल गए।

साल-डेढ़ साल उसके ताऊ ने उसकी परवरिश की। अपने तेज और होशियार चचेरे भाई-बहनों के सामने, सातवी कक्षा में अपनी शिक्षा समाप्त करनेवाली यह लड़की एकदम पगली सी दिखती थी। काली-कलूटी और कुरूप तो वह थी ही। उसे बार-बार अपने भाई-बहनों से तथा उनके स्नेही-सहेलियों से ताने सुनने पड़ते। ये लोग उसे चिढ़ाते, परेशान करते, उपहास करते हुए, स्वयं का मनोरंजन करते। लगातार ऐसा होने के कारण वह आत्मविश्वास ही खो बैठी। इन दिनों, वह पहले, कुसुम से कुस्मी और बाद में कुब्जा बन गई।

कोई उससे बात करने लगे, तो वह गड़बड़ा जाती। फिर उससे गलतियाँ हो जाती। हाथ से कोई ना कोई चीज़ गिर जाती। टूटती। फूटती। ‘पागल’ संबोधन के साथ कई ताने सुनने पड़ते। एक दिन ताऊ जी ने उसे उसका सामान बाँधने को कहा और उसे माई के घर पहुँचा दिया।

माई परेशान हो गई। उनकी नि:संग ज़िंदगी में, यह एक अनचाही चीज़ यकायक आकर उनसे चिपक गई। वह भी कुरूप, पागल, देखते ही मन में घृणा पैदा करने वाली। उसकी जिम्मेदारी उठाने वाला और कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कुसूम जैसी काली-कलूटी, विरूप लड़की की शादी होना भी मुश्किल था। माई को लगा, यह लड़की पेड़ पर चिपके परजीवी पौधे की तरह, मुझसे चिपककर मेरे जीवन का आनंद रस अंत तक चसूती रहेगी। पर अन्य कोई चारा तो था नहीं। उसे घर के बाहर तो नहीं निकाला जा सकता था। दूर की ही सही, वह उनकी भानजी तो थी। मानवता के नाते उसे घर रकना माई ने जरुरी समझा। माई सुसंस्कृत थी। कीर्तन-प्रवचन में लोगों को उपदेश करती थी। अब उपदेश के अनुसार उन्हें बरतना था।

कुसुम अंतिम चरण तक पहुँची।

चोखा डोंगा परि भाव नाही डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा।

(चोखा टेढ़ा-मेढ़ा है, पर उसके मन का भाव वैसा नहीं। अत: ऊपरी दिखावे से क्यों मोहित होते हो…?)

कुसुम को लगा, अभंग में तल्लीन लोगों से कहे,

कुसुम कुरूप है, किन्तु उस का अंतर, उसमें समाये हुए गुण कुरूप नहीं हैं।

माई जी ने दोनों हाथ फैलाकर कुसुम को रुकने का इशारा किया। सभागृह में बैठे लोगों को सुध आ गई। कुसुम सोचने लगी, अभंग गाते समय उससे कोई भूल तो नहीं हुई? वह डर गई। गाते समय उसके चेहरे पर आई आबा अब लुप्त सी हो गई। बदन हमेशा की तरह निर्बुद्ध सा दिखने लगा।

माई जी ने अभंग का सीधा अर्थ बता दिया। फिर व्यावहारिक उदाहरण देकर, हर पंक्ति, हर शब्द के मर्म की व्याख्या की।

‘देखिये, नव वर्ष के पहले दिन, गुढ़ी-पाड़वा के दिन हम कडुनिंब के पत्ते खाते हैं। कड़वे होते है, पर उन्हें खाने से सेहत अच्छी रहती है। आरोग्य अच्छा रहता है। आसमान में चमकनेवाली बिजली… उस की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती है, किन्तु उसकी दीप्ति से आँखे चौंध जाती है। नदी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है, लेकिन उसका पानी प्यासे की प्यास बुझाता है।

एक तृषार्त राजा की कहानी, अपने रसीले अंदाज में उन्होंने सुनाई और अपने मूल विषय की ओर आकर कहा, ‘‘चोखा डोंगा है, मतलब टेढ़ा-मेढ़ा है, काला कलूटा है, पर उसकी अंतरात्मा सच्चे भक्तिभाव से परिपूर्ण है। सभी संतों का ऐसा ही है। ईश्वर के चरणों पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। अपना शरीर रहे, या न रहे, उन्हें उसकी कतई परवाह नहीं है। उनकी निष्ठा अटूट है।”

माई जी ने पीछे देखकर कुसुम को इशारा किया, और कुसुम गाने लगी,

देह जावो, अथवा राहो। पांडुरंगी दृढ़ भावो।

यह शरीर रहे, या न रहे। पांडुरंग के प्रति मेरी भक्तिभावना दृढ़ रहे। सच्ची रहे। फिर एक बार पूरा सभामंडप कुसुम के अलौकिक सुरों के साथ डोलने लगा। माई को थोड़ी फुरसत मिल गई। माई की बढ़ती उमर आज-कल ऐसे विश्राम की,? फुरसत की, माँग कर रही थी। इस विश्राम के बाद उनकी आगे चलने वाली कथा में जान आ जाती। जोश आ जाता। विगत तीन साल से कुसुम माई के पीछे खड़ी रहकर उनका गाने का साथ दे रही है। माई जी निरूपण करती है और बीच में आनेवाले श्लोक, अभंग, ओवी, साकी, दिण्डी, गीत सब कुछ कुसुम गाती है। उसकी मधुर आवाज और सुरीले गाने से माई जी का कीर्तन एक अनोखी उँचाई को छू जाता है। माई जी का कीर्तन है सोने का गहना, और कुसुम का स्वर है, जैसे उस में जड़ा हुआ झगमगाता हीरा।

कुसुम का गाना अचानक ही माई के सामने आया था। जब से वह घर आई थी, मुँह बंद किए ही रहती थी। जरूरी होने पर सिर्फ हाँ या ना में जवाब देती। देखनेवालों को लगता, गूँगी होगी। माई के घर आने के बाद, वह घर के कामकाज में माई का हाथ बँटाने लगी। उसे तो बचपन से ही काम करने की आदत थी। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगीं। माई गृहस्थी के काम-काज में उस पर अधिकतर निर्भर रहने लगी। उसके घर आने से माई को पढ़ने के लिए, नये-नये आख्यान रचने के लिए, ज्यादा फुरसत मिलने लगी। बाहर से आते ही उन्हें चाय या शरबत अनायास मिलने लगा। खाना पकाना, बाज़ार में जाकर आवश्यक चीज़े खरीदना, घर साफ-सुथरा रखना, यह काम कुसुम बड़ी कुशलता से करती, पर कोई पराया सामने आए, तो न जाने क्या हो जाता, वह गड़बड़ा जाती। उसके चेहरे पर उभरा पागलपन का भाव देखकर माई को चिढ़ आने लगती और वह चिल्लाती, ‘‘ऐ, पागल, ध्यान कहाँ है तेरा?” तो कुसुम हड़बड़ी में और कोई न कोई गलती कर बैठती।

माई को कभी-कभी अपने आप पर ही गुस्सा आ जाता। उसमें उस बेचारी की क्या गलती है? रूप थोड़े ही किसी के हाथ होता है! मैं खुद प्रवचन में कहती फिरती हूँ, ‘काय भुललासी वरलिया रंगा?’ (ऊपरी रंग पर क्यों मोहित होते हो?) यह सब क्या सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही है? फिर कुसुम के बारे में उनके मन में ममता उभर आती। पर उसे व्यक्त कैसे करे, उनके समझ में नहीं आता। पिछले छ: सात सालों से कुसुम के बारे में करुणा और घृणा दोनों के बीच उनका मन आंदोलित होता रहता था। अट्ठारह साल की हो गई थी कुसुम। चुप्पी साधे हुए घर का सारा काम निपटाती थी, इस तरह, कि देखने वालों को लगता लड़की गूँगी है।

उस दिन पालघर से कीर्तन समाप्त करने के बाद माई घर लौटी, तो घर से अत्यंत सुरीली आवाज में उन्हे गाना सुनाई दिया।

धाव पाव सावळे विठाई का मनी धरली अढ़ी?

(हे साँवले भगवान, विठूमैया, तुम क्यों रुष्ट हो? अब मुझ पर कृपा करो।)

माई के मन में आया, ‘‘इतनी सुरीली आवाज में कौन गा रहा है। कीर्तन का आमंत्रण देनेवालों में से तो कोई नहीं है? माई अंदर गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। कुसुम अकेली ही थी। अपना काम करते-करते गा रही थी। एकदम मुक्त… आवाज में इतनी आर्तता, इतना तादात्म्य मानो, सचमुच उस साँवले विठ्ठल के साथ बात कर रही हो? माई के आने की जरा भी सुध नहीं लगी उसे। वह गा रही थी और माई सुन रही थी।

अचानक उसका ध्यान माई की ओर गया और वह घबरा गई। गाना एकदम से रुका। ताज़ा पानी भरने के लिए हाथ में पकड़ा फूलदान जमीन पर गिरा और टूट गया। उसके बदन पर पागलपन की छटा छा गई। डरते-डरते वह काँच के टुकड़े समेटने लगी। ‘‘कुसुम फूलदान टूट गया, तो ऐसी कौन सी बड़ी आफत आ गई? कोई बात नहीं। इसमें इतनी डरने वाली क्या बात है?” माई ने कहा।

आज पहली बार माई ने उसे पागल, न कहकर उसके नाम से संबोधित किया था। जिस मुँह से अंगार बरसने की अपेक्षा थी, उसमें से शीतल बौछार करने लगी, तो उसका बदन और भी बावला सा दिखने लगा।

यह क्षण माई के लिए दिव्य अनुभूति का क्षण था। उन्हें लगा, ईश्वर ने कुसुम से रूप देते समय कंजूसी ज़रूर की है, किन्तु यह कमी, उस को दिव्य सुरों का वरदान देकर पूरी की है। अपना सारा निर्माण कौशल्य भगवान् ने उसका गला बनाते समय, उसमें दिव्य सुरों के बीज बोते समय इस्तेमाल किया है। उस दिन उसका गाना सुनकर माई ने मन ही मन निश्चय किया कि वह उसे कीर्तन में गाए जाने वाले अभंग सिखाएगी और कीर्तन में उसका साथ लेगी। उन्होंने यह बात कुसुम को बताई और कहा, ‘‘कल से रियाज शुरू करेंगे।” कीर्तन में गाए जाने वाले पद, ओवी अभंग, साकी दिण्डी, दोहे सब की तैयारी माई अपने घर में ही करती थी। हार्मोनियम, तबला बजाने वाले साजिंदे रियाज के लिए कभी-कभी माई के घर आते। हमेशा घर में होता हुआ गाने का रियाज सुनते-सुनते कुसुम को सभी गाने कंठस्थ थे। माई जब कुसुम को कीर्तन में गाए जाने वाले गाने सिखाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ, कि कुसुम को ये सब सिखाने की ज़रूरत ही नहीं है। उसे सारे गाने, उसके तर्ज़सहित मालूम है। उसमें कमी है, तो बस सिर्फ आत्मविश्वास की। यों तो अच्छी गाती, किन्तु बजाने वाले साथी आए, तो हडबड़ा जाती। सब कुछ भूल जाती। उसने डरते-सहते एक दिन माई से कहा,

‘‘ये मुझसे नहीं होगा। लोगों के सामने मैं नही गा पाऊंगी।”

अब थोड़ा सख्ती से पेश आना ज़रूरी था। माई ने धमकाया,

‘‘तुझे ये सब आएगा। आना ही चाहिये, अगर तुझे इस घर में रहना है, तो गाना सीखना होगा। मेरा साथ करना होगा।”

बेचारी क्या करती? उसे माई के सिवा चारा था ही कहाँ? माई ने धमकाया। साम-दाम-दण्ड नीति अपनाई और कुसुम का रियाज शुरू हुआ। अब कुसुम गाने लगी, माई से भी सुंदर, भावपूर्ण, सुरीला गाना। गाते समय वह हमेशा की पगली-बावली कुसुम नहीं रहती थी। कोई अलग ही लगती। गंधर्वलोक से उतरी हुई एखादी गंधर्वकन्या। पिछले तीन सालों से माई के पीछे खड़ी होकर वह कीर्तन में माई के साथ गाती आ रही थी।

माई जी ने भजन करने के लिए कहा, ‘‘राधाकृष्ण गोपालकृष्ण” – ‘‘राधाकृष्ण-गोपालकृष्ण”

पूरा सभामंडप गोपालकृष्ण की जयघोष से भर गया। तबला और हार्मोनियम के साथ तालियाँ और शब्द एकाकार हो गए। भजन की गति बढ़ गई।

क्रमशः…

प्रकाशित – मधुमती डिसंबर – २००८   

मूल मराठी कथा – कृष्णस्पर्श

मूल मराठी लेखिका – उज्ज्वला केळकर    

हिंदी अनुवाद – मानसी काणे

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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