प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित ग़ज़ल – “दुनिया बदलती जा रही …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #127 ☆ ग़ज़ल – “दुनिया बदलती जा रही …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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चलता तो रहता आदमी हर एक हाल में
पर जलता भी रहता सदा मन के मलाल में।
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दुनिया बदलती जा रही तेजी से हर समय
पर मन रहा उलझा कई सपनों के जाल में।
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सुनता समझता पढ़ता रहा ज्ञान की बातें
बदलाव मगर आ न सका मन की चाल में।
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लालच में ही खोई रहीं नित उसकी निगाहें
बस स्वार्थ ही पसरा रहा उसके खयाल में
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इतिहास है गवाह लड़ी गई लड़ाइयाँ
क्योंकि नजर गड़ी रही औरों के माल में।
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बातें तो प्रेम की किया करता रहा बहुत
पर मुझको दिखा हर समय उलझा बवाल में।
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खोजें भी हुई ज्ञान औ’ विज्ञान की कई
पर स्वार्थ की झलक मिली उसके कमाल में।
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हर वक्त रही कामना यश और नाम की
धर्मों के काम तक में औ’ हर देखभाल में।
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हर समस्या का मिल गया हल होता शांति से
गर पेंच न डाले गये होते सवाल में।
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सद्भावना उसकी ’विदग्ध’ आती नजर कम
बगुला भगत सी दृष्टि है धन के उछाल में।
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈