श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिल्ली डंडा”।)
गिल्ली डंडा एकमात्र ऐसा भारतीय मैदानी खेल है, जो समय के साथ वयस्क नहीं हो पाया। कम से कम संसाधनों के साथ खेला जाने वाला यह खेल, आज अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। हॉकी, फुटबॉल और क्रिकेट जैसे खेलों की आंधी में गिल्ली न जाने खो गई, और डंडा न जाने कहां गुम हो गया।
मुझे अच्छी तरह याद है, तैमूर के परदादा के पहले हमने क्रिकेट का नाम भी नहीं सुना था।
भला हो लिटिल मास्टर गावस्कर, भारत रत्न सचिन और कपिल पाजी का, जिन्होंने बच्चे बच्चे के हाथ में बल्ला और क्रिकेट बॉल पकड़ा दी। हमने तो होश संभालते ही गिल्ली और डंडे को ही हाथ लगाया था।।
जब भी घर में लकड़ी का काम होता, सुतार हमारे लिए तीन चार धारदार गिल्लियां और गोल गोल डंडे अपनी मर्जी से बना देता था। दुकानों पर भी गिल्ली डंडा अपनी शोभा बढ़ाते थे। हमें अधिक बुरा तब लगता था, जब हमारे खेल के बीच कोई घर का बड़ा सदस्य, बिना बुलाए हठात् आकर, हमसे डंडा लेकर गिल्ली पर अपनी ताकत आजमाकर वहां से रवाना हो जाता था। ऐसे वक्त अक्सर गिल्ली गुम हो जाने पर खेल अपने आप ही रुक जाता था।
एक तरह से क्रिकेट जैसा ही खेल है यह गिल्ली डंडा। यहां डंडा ही बैट है और बॉल की जगह गिल्ली।
यहां विकेट गाड़े नहीं जाते, बस एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है, जहां गिल्ली को रखकर उसे डंडे से उछाला जाता है। यहां भी कैच पकड़ने के लिए फील्डर होते हैं। अगर पकड़ लिया तो आऊट और अगर किसी ने नहीं पकड़ा, तो रन मशीन शुरू हो जाती है।यहां शॉट को टोल कहते हैं। गिल्ली को डंडे से उछालकर उस पर जोर से प्रहार किया जाता है। फिर देखा जाता है, गिल्ली कितनी दूर गई है। प्रहार के ऐसे मौके सिर्फ तीन बार ही दिए जाते हैं।
इस खेल में रन दौड़कर नहीं बनाते। अंदाज से, जहां गिल्ली गिरी है, वहां तक की दूरी मानकर पॉइंट्स मांगे जाते हैं, अगर सामने वाले को हजम हो गया तो हां, वर्ना उसी डंडे से जमीन नापी जाती है। और अगर अंदाज गलत हुआ तो खिलाड़ी आउट।।
वैसे तो यह खेल दो लोग भी खेल सकते हैं, लेकिन अधिक खिलाड़ियों की टीम बनाकर भी यह खेला जा सकता है।एक राजा बाली के समय में वामन अवतार हुए थे, जिन्होंने तीन कदम में तीनों लोक नाप लिए थे, और यहां इस गिल्ली डंडे के खेल में तीन प्रहार से आप जितनी चाहो, ज़मीन नाप सकते हो।
पहले तो यह खेल हम घर के आंगन में ही खेल लेते थे, लेकिन जब यह गिल्ली उछलती थी तो उन लोगों की आँखों को ही निशाना बनाती थी जिन्हें यह खेल फूटी आंखों पसंद नहीं था।।
इंसान अब बड़ा हो गया है। अब डंडे की जगह वह गगनचुंबी बांस से आसमान को हिला सकता है, गिल्ली अपना महत्व खो चुकी है, लालच के गड्ढे बहुत गहरे हो चुके हैं।
अफसोस गिल्ली डंडे के खेल में कोई मेजर ध्यानचंद नहीं, कोई मास्टर चंदगीराम नहीं, कोई हेलीकॉप्टर शॉट वाला धोनी नहीं। सही कारण तो यह है कि जब आज की युवा पीढ़ी को डांडिया रास आ रहा है, तो उसे छोड़ गिल्ली डंडा कौन खेलना चाहेगा।
एक अफवाह है, सरकार एक जांच आयोग बिठा रही है जो इस आरोप की जांच करेगा कि गिल्ली डंडे जैसे स्वदेशी खेल की दुर्दशा के लिए पिछली सरकार ही दोषी है। लगता है पतंग की तरह, गिल्ली डंडे के दिन भी अच्छे आ रहे हैं। आप गिल्ली डंडा खेलने कब आ रहे हैं।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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