श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शराफ़त छोड़ दी मैंने“।)
क्या आपको नहीं लगता, यह सीधी सीधी धमकी है! यह शरीफ़ों की भाषा है ही नहीं।
आपकी ऐसी क्या मज़बूरी थी, जो आप शराफ़त छोड़ने पर आमादा हो गए ? माफ़ करना, आज आपने मुँह खुलवा दिया, हम तो आपको कभी शरीफ़ मानते ही नहीं थे।
हेमाजी की एक फ़िल्म आई थी, शराफ़त, उसका ही यह शीर्षक गीत है। लोग अच्छे बनकर मानो हम पर अहसान कर रहे हों। ज़रा सी बात बिगड़ी, और असली चेहरा सामने! अभी तक तुमने मेरी शराफ़त देखी है, अब मेरा कमीनापन भी देख लेना। वैसे भी, तुम मुझे जानते ही कितना हो। इसे कहते हैं, शराफ़त का भंडाफोड़। ।
स्कूल में एक दोस्त था, सक्सेना!” बड़े आदमी का बेटा था, आज वह भी बहुत बड़ा आदमी बन गया है। दोस्ती में जान हाज़िर! और तुनक-मिज़ाज़ इतना, कि बात बात में, “आज से बात बंद”। स्कूल के दिनों में दोस्ताना भी होता था, और तीखी झड़प और नोक-झोंक भी। महीनों मुँह फुलाये रहेंगे और अचानक फुग्गे की तरह फूट पड़ेंगे।
जब वह नाराज होता, एक डायलॉग अवश्य बोलता! प्रदीप बाबू, सक्सेना दोनों तरफ़ चलना जानता है। लेकिन ज़्यादा चल नहीं पाता था। मोटा था! थक जाता था। दोनों दोस्त फिर साथ साथ चलने लग जाते थे।।
दिलीपकुमार की एक फ़िल्म आई थी, गोपी! ये फिल्में तब की हैं, जब ट्रेजेडी किंग दिलीप साहब अपने देवदास टाइप किरदारों में इतने डूब गए थे कि उन्हें अवसाद (डिप्रेशन) ने घेर लिया था। अभिनय उनकी रग रग में बसा था, अतः मनो-चिकित्सकों ने उन्हें हल्के फुल्के रोल करने की सलाह दी। साला मैं तो साहब बन गया, साहब बनकर कैसा तन गया, उसी फ़िल्म गोपी का गीत है।
गीत की शुरुआत ही, “जेंटलमैन, जेंटलमैन, जेंटलमैन “से होती है। जेंटलमैन ही साहब है, साहब ही शरीफ हैं। सूट-बूट हैट और टाई, सर से पाँव तक हाई-फाई। शरीफ लोग अंग्रेज़ी में गाली बकते हैं। चाय की एक बूँद सूट पर गिर जाए, तो shit बोलते हैं। लेकिन साहब कभी शराफत नहीं छोड़ते।।
साहिर साहब न जाने क्यों इन कथित शरीफ़ज़ादों से चिढ़े हुए रहते थे! क्या मिलिए ऐसे लोगों से, जिनकी फ़ितरत छुपी रहे। नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।
मैंने बहुत कोशिश की, शराफ़त छोड़ दूँ, लेकिन यह शराफत ही है, जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही! कई बार मैंने शराफत से गुजारिश की, आप तशरीफ़ ले जाइए, लेकिन वह मानती ही नहीं! कहती है कि अगर मैं तशरीफ़ ले गई, तो आप कहीं तशरीफ़ रखने लायक नहीं रह जाओगे। मुझे आपसे ज़्यादा आपकी तशरीफ़ की चिंता है। अब शराफत इसी में है, जहाँ भी तशरीफ़ ले जाओ, शराफ़त साथ में ले जाओ। लोग कहते भी हैं, देखो! शरीफ़ज़ादे तशरीफ़ ला रहे हैं।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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