श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “आँखों के तारे थे सबके…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 77 – आँखों के तारे थे सबके… ☆
आँखों के तारे थे सबके, क्यों हो गए पराए।
स्वारथ के चूल्हे बटते ही, बर्तन हैं टकराए ।।
दुखियारी माता रोती है, मौन पड़ी परछी में,
बँटवारे में वह भी बँट गइ, बाप गए धकियाए।।
बहुओं ने अब कमर कसी है,उँगली खड़ी दिखाई,
भेदभाव का लांछन देकर,जन-बच्चे गुर्राए।
परिपाटी जबसे यह आई, बढ़ती गईं दरारें,
दुहराएगी हर पीढ़ी ही, कौन उन्हें समझाए।
कंटकपथ पर चलना क्यों है, अपने पग घायल हों,
राह बुहारें करें सफाई, फिर हम क्यों भरमाए।
जीवन को कर दिया समर्पित, तुरपाई कर-कर के
बदले में हम क्या दे पाते, जाने पर पछताए।
चलो सहेजें परिवारों को, स्वर्णिम इसे बनाएँ,
ऐसी संस्कृति कहाँ मिलेगी,कोई तो बतलाए।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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