श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शाखा में मंगलवार का कार्यदिवस चुनौतियों को टीमवर्क के द्वारा परास्त करने के रूप में सामने आया और विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद शाखा की हार्मोनी अखंड रही. इस दैनिक लक्ष्य को पाने के बाद स्टाफ विश्लेषण में व्यस्त हो गया. जो दैनिक अपडाउनर्स थे, उन्होंने अपराध बोध के बावजूद दोष रेल विभाग और राज्यपरिवहन को सुगमता से दान कर दिया. पर इस शाखा में एक लेखापाल महोदय भी थे. वैसे दैनिक तो नहीं पर साप्ताहिक अपडाउनर्स तो वो भी थे पर इसे असामान्य मानते हुये उन्होंने DUD याने डेली अपडाउनर्स से इशारों इशारों में बहुत कुछ कह भी दिया. अगर चाहते तो प्रशासनिक स्तर पर नंबर दो होते हुये समस्या के हल की दिशा में संवाद भी कर सकते थे पर उनका यह मानना था कि ये सब तब तक शाखाप्रबंधक के कार्यक्षेत्र में आता है जब तक कि यह दायित्व उनके मथ्थे नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति स्थायी रूप से उन्होंने कभी आने नहीं दी और स्थानापन्न की स्थिति में भी प्रदत्त फाइनेंशियल पॉवर्स का प्रयोग सिर्फ पेटीकेश के वाउचर्स पास करने तक ही सीमित रखा. लेखापाल के पद पर उन्होंने स्वयं ही अपना रोल स्ट्रांग रूम और अपनी सीट तक सीमित करके रखा था. याने उनका कार्यक्षेत्र अटारी और वाघा बार्डर के बीच ही सीमित था.
जब पुराने जमाने में शाखाप्रबंधक को बैंक ने “ऐजेंट”पदनाम नवाजा था तब उनका रुतबा किसी राजा के सूबेदार से कम नहीं होता था. बैंक परिसर के ऊपर ही उनका राजनिवास हुआ करता था और यह माना जाता था कि लंच/डिनर/शयन के समय के अलावा उनका रोल शाखा की देखरेख करना ही है. बैंक परिसर के बाहर अगर वे शहर और बाजार क्षेत्र में भी जायें तो उनका पहला उत्तरदायित्व बैंक के वाणिज्यिक हितों का संरक्षण और प्रमोशन ही होना चाहिए. उस जमाने में बैंक विशेषकर अपने बैंक के “ऐजेंट”का रुतबा जिले या तहसील के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों से कम नहीं माना जाता था. पर जब भारतीय जीवन निगम ने अपने घुमंतू बिजनेस खींचको को यही परिचय नाम दिया तो बैंक में ऐजेंट का पद भी रातोंरात “शाखाप्रबंधक” बन गया और बैंक के इस प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद की मानमर्यादा की रक्षा हुई. लगा जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर खत्म हुआ और ईस्ट टू वेस्ट और नार्थ टू साउथ सिर्फ और सिर्फ एक नाम से बैंकिंग के नये दौर की शुरुआत हुई जो आजादी के बाद बने भारत की तरह ही बेमिसाल और अतुलनीय थी. कश्मीर से कन्याकुमारी तक सिर्फ भारत ही नहीं हमारा बैंक भी एक ही है और हमारी कहानियां भले ही कुछ कुछ अलग लगती हों, हमारे धर्म, जाति, भाषा और प्रांतीयता के अलग होते हुये भी ये बैंक का मोनोग्राम ही है जिसके अंदर से हम जैसे ही गुजरते हैं, एक हो जाते हैं. आखिर हम सबकी सर्विस कंडीशन्स और वैतनिक लाभ भी तो एक से ही हैं. विभिन्नता पद और लेंथ ऑफ सर्विस में भले ही हो पर भावना में हमारे यहाँ बैंक के लिए जो मैसेंजर सोचता है, वही मैनेजर भी सोचता है कि यह विशाल वटवृक्ष सलामत रहे, मजबूत रहे और सबकी उम्मीदों को, सबके वर्तमान और भविष्य को संरक्षित करता रहे.
नोट: इस भावना में तालघाट शाखा के लेखापाल का परिचय अधूरा रह गया जो अगले भाग में सामने लाने की कोशिश करूंगा. इन महाशय के साथ का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था तो ये चरित्र काल्पनिक नहीं है, पर नाम की जरूरत भी नहीं है. हो सकता है हममें से बहुत लोग इस तरह की प्रतिभाओं से रूबरू हो चुके हों. पर उनके व्यक्तित्व को चुटीले और मनोरंजक रूप में पेश करना ही इस श्रंखला का एकमात्र उद्देश्य है. किस्साये तालघाट जारी तो रहेगा पर अगर आप सभी पढ़कर इसके साथ किसी न किसी तरह जुड़े तो प्रोत्साहन मिलेगा.
अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈