श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 138 ☆
☆ कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
वह भूख से मर रहा है।
दर्द से भी करहा रहा है।
हम चुपचाप जा रहे हैं
देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
सटसट कर चल रहे हैं ।
संक्रमण में पल रहे हैं।
भूल गए सब दूरियां भी
आदत यह सिमट अड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
वह कल मरता है मरे।
हम भी क्यों कर उससे डरें।
आया है तो जाएगा ही
यही तो जीवन की लड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
हम सब चीजें दबाए हैं।
दूजे भी आस लगाए हैं।
मदद को क्यों आगे आए
अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
हम क्यों पाले ? यह नियम है।
क्या सब घूमते हुए यम हैं ?
यह आदत हमारी ही
हमारे ही आगे खड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
नकली मरीज लिटाए हैं।
कोस कर पैसे भी खाएं हैं।
मर रहे तो मरे यह बला से
लाशें लाइन में खड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
कुछ यमदूत भी आए हैं ।
वे परियों के ही साए हैं।
बुझती हुई रोशनी में वे
जलते दीपक की कड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
कैसे इन यादों को सहेजोगे ?
मदद के बिना ही क्या भजोगे ?
दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो
तन-मन लगाने की घड़ी है।
अपनों को भी क्या पड़ी है ?
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
20-05-2021
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