श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचनामा”।)
न जाने क्यों, पंच से मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर याद आ जाती है। परमेश्वर तो एक होता है, लेकिन जब पाँच सयाने एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर ही तो कहलाते हैं। पंच विक्रमादित्य की तरह पंचायत में न्याय तो करते ही हैं, दोषी को दंड भी सुनाते हैं। न्याय का हथौड़ा जब प्रहार करता है, तब वह भी एक तरह का punch ही तो होता है।
पुलिस बरामद सामग्री का पंचनामा बनाती है। कुछ गवाहों के सामने वस्तुओं को सील कर दिया जाता है और एक दस्तावेज तैयार किया जाता है, जिस पर सभी के हस्ताक्षर होते हैं। बैंकों में लॉकर भी सील किए जाते हैं और अदालत बजावरी भी चस्पा करती है। एक महान मुक्केबाज मोहम्मद अली भी हुए थे, जिनका पंच, विरोधी मुक्केबाज को दिन में तारे दिखला देता था।।
कार्टून और व्यंग्य सृजन की ऐसी विधा है, जिसमें punch का प्रयोग किया जाता है। Punch तत्कालीन व्यवस्था एवं विसंगति पर एक ऐसा करारा तमाचा है कि जिसका न तो बचाव संभव है और न ही प्रतिकार। तानाशाहों को इस प्रहार की आदत नहीं होती इसलिए अक्सर अभिव्यक्ति की आज़ादी के इन पंचों पर उनकी सदा वक्र दृष्टि ही रहती चली आई है। कई बार इन पंचों का ही पंचनामा बना दिया जाता है और उन्हें सेंसर यानी प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
कलम तलवार से अधिक खतरनाक होती है। इसका जितनी बार सर कलम करो, यह उतनी ही पैनी होती चली जाती है। कार्टून और व्यंग्य में अगर पंच ना हो वह किसी बिना तड़के वाली फीकी दाल से कम नहीं।
इंग्लैंड से प्रकाशित कार्टून मैग्जीन punch अपने १५१ वर्ष पूर्ण कर सन् १९९२ में आख़िरी सांसें लेने को मजबूर हो गई। वे लोग भाग्यशाली रहे जिन्होंने अंग्रेजी में प्रकाशित पत्रिका Shankar’s Weekly का आनंद लिया। हिंदी में भी शंकर्स वीकली का कुछ समय के लिए प्रकाशन हुआ, लेकिन इसका भी बेड लक खराब ही निकला।
टाइम्स ऑफ इंडिया में आर.के.लक्ष्मण लगातार कई वर्षों तक व्यवस्था की परवाह किए बगैर अपने तीखे, करारे और तिलमिलाते कार्टून परोसते रहे। व्यवस्था को जनता से उतना खतरा नहीं होता जितना प्रिंट मीडिया से होता है। एक आपातकाल ने ऐसा सबक सिखाया, सब लाइन पर आ गए। आज न आर.के.लक्ष्मण का कॉमन मैन है और न ही धर्मयुग के कार्टून कोने में ढब्बू जी। बस व्यंग्य और कार्टून के नाम पर …. से ही काम चला लो। साफ सुथरे, शालीन व्यंग्य और कार्टून जो आप घर में बच्चों के साथ भी देख सकें।।
एक चेन्नई के पत्रकार, कार्टूनिस्ट चो रामास्वामी हुए थे और एक मुंबई के शिव सैनिक बाल ठाकरे, जो राजनीति के घिघौने चरित्र पर प्रहार ही नहीं करते थे, उसका डटकर सामना भी करते थे और आज हालत देखिए।
व्यंग्य और कार्टून की खेती के लिए भूमि का उर्वरा होना भी जरूरी है। श्रीलाल शुक्ल कांग्रेस के जमाने में शिवपालगंज ढूंढ पाए, तो राग दरबारी का सृजन संभव हुआ, आर.के.लक्ष्मण के समय में नेहरू और इंदिरा जैसे चरित्र थे, जिनके चेहरे को देख, कम से कम कूची तो चलाई ही जा सकती थी।आज सभी साफ सुथरे, कमल से कोमल, निष्पाप, निष्कलंक चेहरों पर क्या कार्टून बनाए जाएं और क्या व्यंग्य लिखा जाए। बड़ा धर्मसंकट है। डर है, कहीं कार्टून और व्यंग्य जैसी विधा का पंचनामा ही ना बनाना पड़ जाए ..!!!
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© श्री प्रदीप शर्मा
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