श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “औलौकिक गुरु पूजा ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 ☆
☆ लघुकथा – 🙏 गुरुपूर्णिमा विशेष 🪔औलौकिक गुरु पूजा🪔 ☆
शौर्य आज के युवा पीढ़ी का नौजवान कार्य कुशलता में निपुण, संस्कारों का धनी, धार्मिक और सभी से मित्रता करना, उसका अपना व्यक्तित्व था।
एक बड़ी सी प्राइवेट कंपनी में अच्छे बड़े पद पर कार्यरत। उसके व्यक्तित्व की चर्चा ऑफिस तो क्या आसपास के लोग भी किया करते थे। सदा खुश रहने वाला शौर्य बहुत ही दयालु था।
किसी की मदद करना, किसी को जरूरत का सामान दे देना और जरूरत पड़ने पर उसके घर जाकर सहायता करके आ जाना। घर में पापा मम्मी भी कहते ” बहुत ही होनहार है हमारा बेटा।” पापा कहते “दादाजी पर जो गया है।”
शौर्य साधु संतों की सेवा सत्संग भी किया करता था। उसकी शादी की बात चलने लगी। घर में सभी उत्साहित थे। परंतु शौर्य चाहता था कि जब तक दादाजी की ओर से सभी परिवार एक नहीं हो जाते, वह शादी नहीं करेगा।
हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर वह अपने ऑफिस में एक शानदार कार्यक्रम रखता। सभी की भोजन व्यवस्था और पूजा में सिर्फ खाली टेबल पर कुछ फूल मालाओं से औलौकिक पूजा करता था।
ऑफिस के कर्मचारी कहते हैं “साहब आप इतने अच्छे से गुरु पूर्णिमा का पर्व प्रतिवर्ष मनाते हैं परंतु गुरु की फोटो या मूर्ति नहीं रखते या कोई आपके गुरु जी कभी नहीं आते।”
शौर्य मुस्करा कर कहता.. “जिस दिन मेरे गुरु जी आएंगे उसी दिन दीपावली की तरह रौशन होगा और आप सभी को पता चल जाएगा।”
शौर्य के साथ काम करने वाली उसकी एक महिला मित्र सीमा अक्सर देखा करती अपने पॉकेट पर्स से किसी वरिष्ठ सर्जन की फोटो को रोज देख कर प्रणाम करते है और अपने दिन की शुरुआत करते हैं। एक दिन किसी काम से शौर्य अपना पर्स भूल गए और ऑफिस के काम से दूसरे चेम्बर में चले गए।
बस फिर क्या था सीमा ने जो उसे मन ही मन पसंद करती थी उस फोटो को कॉपी करके, पता लगाना शुरू कर दिया। पता चला यह तो शौर्य के दादाजी है जो उसके पापा को किसी कारण आपसी बहस से उन्हें घर से निकाल दिए हैं।
अब पापा और दादाजी एक दूसरे का मुँह देखना पसंद नहीं करते। उसने अपना प्रयास जारी रखी। दादा जी के पास पहुंचकर शौर्य के सारे किस्से कहानी बता दी और यह भी बता चुकी आपको गुरु के रूप में मानता है।
“कल गुरु पूर्णिमा है आप दादा जी नहीं आप गुरु के रूप में एक बार शौर्य के ऑफिस पहुंचे।”
दादाजी का मन द्रवित हो उठा आज गुरु पूर्णिमा के दिन मन ही मन गर्व से भर उठे और ठीक समय पर ऑफिस पहुँचे। दीपावली की तरह सजा था आफिस। “इतनी शानदार सजावट मैने तो नहीं कहा था” गंभीर हो गया शौर्य । दादा जी आए सीमा ने दौड़कर स्वागत किया।
कुर्सी पर बिठा दिया और और शौर्य को बुलाने पहुंच गई। आपको पूजा के लिए बुलाया जा रहा है। शौर्य जल्दी-जल्दी जाने लगा, दूर से देखा पाँव तले जमीन खिसक गई और खुशी आश्चर्य से दोनों आँखों से अश्रुं की धारा बहने लगी। साष्टांग गुरु के चरणों में गिर चुका था शौर्य।
आफिस वाले इस मनोरम दृश्य को मोबाइल पर कैद कर रहे थे। पीछे से मम्मी पापा पुष्पों का हार लिए दादाजी के गले में पहनाने के लिए आगे बढ़ चुके थे। आज गुरु पूर्णिमा पर शौर्य को इससे बड़ा तोहफा शायद और कभी नहीं मिल सकता था। उठ कर शौर्य ने सीमा का हाथ थामा और दादा जी के सामने खड़ा था। दोनों हाथों से आशीर्वाद की छड़ी लग चुकी थी। शौर्य की औलौकिक पूजा साकार हो चली।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈