डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सिहरन’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 122 ☆
☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘आशा! तेरा कस्टमर आया है।‘
‘बिटिया ! तू यहीं बैठ, मैं अभी आई काम करके।‘
‘जल्दी आना। ‘
थोड़ी देर बाद फिर आवाज –‘आशा! नीचे आ जल्दी।‘
‘बिटिया! तू थोड़ी देर खेल ले, मैं बस अभी आई।‘
‘हूँ —।‘
‘बिटिया! तू खाना खा ले, तब तक मैं नीचे जाकर आती हूँ।‘
‘अच्छा ‘– उसने सिर हिला दिया।
दिन भर में आशा को संबोधित करती ऐसी ही आवाज ना जाने कितनी बार आती और आशा सात – आठ साल की बिटिया को बहलाकर नीचे चली जाती।
ऐसा ही एक पल –‘बिटिया! ध्यान से पढ़ाई करती रहना, मैं बस अभी आई काम करके।‘
“अम्माँ ! अकेले कितना काम करोगी? थक जाओगी तुम, रुको ना, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ। तुम कहती हो ना, कि मैं बड़ी हो गई हूँ? “
आशा लड़खड़ाकर सीढ़ी पर बैठ गई।
©डॉ. ऋचा शर्मा
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