डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘गाँव का दामाद’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 199 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘गाँव का दामाद’

जनार्दन को हम लोग ‘जनार्दन द ग्रेट’ कहते हैं। एकदम व्यवहारिक आदमी है, ‘मैटर ऑफ फैक्ट’। जनार्दन उन लोगों में से हैं जो गुलाब की कद्र उसकी खूबसूरती के कारण नहीं, बल्कि गुलकंद या गुलाबजल की वजह से करते हैं। ऐसे ही लोग इस असार संसार में धन-धान्य का संग्रह कर सुख की स्थिति को प्राप्त प्राप्त होते हैं।

जनार्दन मुझे पसन्द करता है। शायद इसका कारण यह है कि मैं सांसारिक मामलों में उतना ही बोदा हूँ जितना वह सिद्ध है। विज्ञान के हिसाब से विपरीत ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। मैं जनार्दन के साथ प्रतियोगिता में खड़ा नहीं होता, इसीलिए वह मेरा साथ पसन्द करता है। मेरे साथ वह बहुत ‘रिलैक्स्ड’ महसूस करता है।

जनार्दन अभी कुँवारा है और बड़ी बोली लगाने वालों की तलाश में है। उसकी नज़र में धन जीवन में सबसे अहम चीज़ है। धन होने पर अन्य विभूतियाँ अपने आप खिंची चली आती हैं। उसकी नज़र साध्यों पर रहती है, साधनों के औचित्य को लेकर मगजपच्ची करना उसकी फितरत में नहीं है।

जनार्दन यारबाश आदमी है। अकेले कहीं आना जाना या तनहाई में वक्त गुज़ारना उसे पसन्द नहीं। एक दिन मुझसे बोला, ‘तुम्हें अपने भाई की ससुराल घुमा लाता हूँ। सिर्फ चार घंटे का सफर है। दो दिन रह कर लौट आएंगे। बहुत दिन से जाने की सोच रहा हूँ।’

उसकी नज़र में ससुराल एक ऐसा स्थान था जहाँ दामाद और दामाद के रिश्तेदारों को हमेशा उत्तम सेवा पाने का अधिकार था। उसका मत था कि ससुराल को जितना दुहा जा सके, निश्चिंत होकर कर दुहना चाहिए।

मेरे लाख मना करने पर भी वह मुझे पकड़ कर ले गया। जहांँ हम उतरे वह एक गाँव था, सड़क से दो तीन फर्लांग दूर। सड़क पर तीन चार दूकानें थीं। हमारे पास हैंडबैग थे। मैं अपना हैंडबैग लेकर बढ़ने लगा तो जनार्दन ने मुझे रोका, कहा, ‘हैंडबैग यहीं दूकान पर छोड़ देते हैं।’

मैंने विरोध किया,कहा, ‘ज़रा सा तो वज़न है।’

जनार्दन ने हाथ उठाकर घोषणा की, ‘इज्जत का सवाल है। यह हमारे समाज का शाश्वत नियम है कि दामाद को कोई भी बोझ नहीं उठाना चाहिए।’

मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने कुछ नाराज़ होकर कहा, ‘भैया, यह ‘डिग्निटी ऑफ लेबर’ का सिद्धांत थोड़ी देर के लिए छोड़ दो। मैं इन थोथे सिद्धांतों के चक्कर में अपनी पुरानी परंपराओं को नहीं छोड़ सकता।’

हम हैंडबैग दूकान पर छोड़ कर गाँव में दाखिल हुए। वह एक बड़े से खपरैल वाले मकान के सामने मुझे ले गया। सामने मचिया पर एक वृद्ध बैठे थे। जनार्दन को देखकर वे हड़बड़ा गये। दौड़कर घर के भीतर आवाजें देने लगे,’अरे देखो, छोटे कुँवर साहब आये हैं।’

घर में भगदड़ मच गयी। वृद्ध जनार्दन के भैया के ससुर थे। जल्दी उनके दो पुत्र निकले। राम-रहीम हुई।दो तीन लड़कियाँ निकलीं। सलज्ज मुस्कान फेंक कर खड़ी हो गयीं। दूर कई घूँघट और बिना घूँघट वाले चेहरे हमारी तरफ ताक-झाँक करते दिखने लगे। जनार्दन ने ससुर साहब के घुटने छूकर आदर देने की रस्म पूरी की।

जल्दी ही बाल्टी में पानी और लोटा लिये एक सेवक आया। ससुर साहब बोले, ‘हाथ पाँव धो लीजिए।’

सेवक अपने हाथों से जनार्दन के चरण धोने लगा और जनार्दन निर्विकार भाव से धुलवाते रहे। मेरी बारी आयी तो मैंने सेवक के हाथ से लोटा ले लिया। जनार्दन की कुपित दृष्टि और ससुर साहब के इसरार के बावजूद मैंने सेवक की सेवा नहीं ली।

लड़कियाँ पानी शर्बत ले आयीं। फिर थोड़ी देर में चाय, मिठाई, नमकीन का दौर हुआ। जनार्दन बहुत महत्वपूर्ण होने का ‘पोज़’ मार रहा था। उसके ‘पोज़’ से मुझे असुविधा हो रही थी।

तब तक शाम हो गयी थी। दोनों साले जनार्दन से घुल घुल कर बात कर रहे थे। लड़कियाँ भी वहीं  भिनभिना रही थीं। मैं इस सब में फिट नहीं हो पा रहा था, लेकिन जनार्दन आकंठ आनन्द में डूबा हुआ था।

रात को भोजन का बुलावा हुआ। सास जी सामने भोजन कराने के लिए बैठी थीं। सेवक पंखा लिये तैनात था। मनुहार करके ज़बरदस्ती खाना खिलाया गया। लड़कियाँ टिप्पणी करतीं– ‘शरमाइए मत। भूखे रह जाएंगे। फिर हमारी बदनामी करेंगे।’ इस चक्कर में पेट पर खासा अत्याचार हो गया।

बिस्तर पर आकर मैंने पेट बजाकर जनार्दन से कहा, ‘आवभगत इसी रफ्तार से होती रही तो सही सलामत वापस होना मुश्किल है।’

जनार्दन विजय भाव से बोला, ‘सब पच जाएगा। ससुराल का माल है। समझदार लोग कह गये हैं कि पराया अन्न संसार में दुर्लभ है।’

सबेरे से फिर पेट पर आक्रमण शुरू हो गया। नाश्ता इतना ज़बरदस्त हुआ कि भोजन की ज़रूरत खत्म हो गयी। लेकिन भोजन से बचना मुश्किल था।

मैंने जनार्दन से कहा, ‘भाई, मैं मंदाग्नि का स्थापित रोगी हूँ। तुम्हारी ससुराल का यह प्रेम भाव मुझे बहुत मँहगा पड़ेगा।’

जनार्दन ने सिर झटक कर मेरी बात को उड़ा दिया।

वहाँ वह लड़कियों से ऐसे मज़ाक करता था जो शालीनता की परिधि को लाँघ जाते थे। मैंने उसे मना किया तो वह बोला, ‘तुम अनोखे हो। अपने यहाँ सालों सालियों से अश्लील मज़ाक करने का रिवाज है। यह दामादों का सनातन अधिकार है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है?’

पूरा परिवार हमारी सेवा में इस तरह लगा था जैसे हम लोग कहीं के फरिश्ते हों। ससुर साहब हम लोगों को देखकर उठ पर खड़े हो जाते। मुझे संकोच लगता, लेकिन जनार्दन उसे सहज भाव से ले रहा था।

उस दिन शाम तक आतिथ्य की मार से मेरी हालत खराब हो गयी। मैंने शाम को जनार्दन से कहा, ‘चलो, थोड़ा टहल कर आते हैं। खाना पचेगा।’

वह पलंग पर पसरता हुआ बोला, ‘पागल हो क्या? यहाँ घर में पलंग है, बिस्तर है, सालियों की मधुर बातें हैं। यह सब छोड़कर सड़क की खाक छानने की तुम्हें क्या सूझ रही है?’

मैंने कहा, ‘चलो गाँव के कुछ लोगों से मिल आते हैं। मन बहलेगा।’

वह बोला, ‘क्या गजब करते हो? हम गाँव के दामाद हैं। हर ऐरे-गैरे के घर नहीं जा सकते। यहीं बैठो।’

वह अपनी जगह से नहीं हिला।

थोड़ी देर में शिष्टाचार प्रदर्शन के लिए गाँव के सात आठ लोग हमारे पास आकर बैठ गये। उनके बीच में जनार्दन ऐसे मुँह बना कर बैठ गया जैसे कहीं का राजकुमार हो। उनसे बात करता जो एकदम सर्वज्ञ की मुद्रा में,जैसे वे मूढ़ जाहिल हों।

उनमें से एक कुछ हीनता के भाव से बोला, ‘कुँवर साहब, हमारा मुन्ना बारहवीं में फैल कर गया है। उसकी नौकरी आपको लगवाना है। आप कहो तो साथ भिजवा दें।’

जनार्दन ठसक से बोला, ‘हाँ हाँ जरूर। मेरी पहचान के कई लोग हैं शहर में। लेकिन अभी साथ भेजने की जरूरत नहीं है। मैं वहाँ से फोन करूँगा, तब भेज देना।’

लड़के के बाप ने गद्गद होकर हाथ जोड़े।

बाद में मैंने जनार्दन से कहा, ‘क्यों झूठी शेखी बघारता है?’

वह कुटिल हँसी हँसकर बोला, ‘अपनी गाँठ से क्या जाता है? वह भी खुश, हम भी खुश।’

छोटे साले से वह बोला, ‘इस साल मटर वटर कैसी आयी है?’

थोड़ी देर में मटर से भरी बड़ी थाली आ गयी। मैंने उससे पूछा, ‘इतना तो ठूँस रहे हो। अब इसे कहाँ रखोगे?’

वह हँसकर बोला, ‘मटर की थैली में। सब पदार्थों के लिए अलग अलग थैलियाँ होती हैं। चिन्ता मत करो। जिसने खाने के लिए मुँह दिया है वह पचाने की व्यवस्था भी करेगा।’

एक दिन वहाँ और ठहर कर और पेट का पूरा सत्यानाश कर के हमने लौटने की तैयारी की। चलते वक्त सास जी ने हमें पाँच पाँच सौ रुपये दिये। जनार्दन ने निश्चिंत भाव से जेब में रख लिये। मैंने पूछा, ‘यह किस लिए?’ सास जी ने जवाब दिया, ‘मिठाई खाने के लिए।’ जनार्दन ने मेरी तरफ देख कर आँख दबायी। बाद में बोला, ‘आती हुई लक्ष्मी का हमेशा स्वागत करना चाहिए। और फिर ससुराल में जो मिल जाए उसे थोड़ा समझ कर रख लेना चाहिए।’

हमारे बैग सेवक के हाथ में थे। मटर की एक बोरी भी थी। बस अड्डे के रास्ते में देखा, जनार्दन के चेहरे पर कुछ कष्ट का भाव था। पूछा, ‘क्या बात है?’

वह बोला, ‘पेट में तकलीफ है।’

बस अड्डे पर बैठा हुआ वह बार-बार पहलू बदलता रहा, पेट को दबाता रहा। दूर खेतों के पास गड्ढों में भरे पानी को हसरत की निगाह से देखता। मैंने कहा, ‘प्यारे भाई, सीधे बैठे रहो। यहाँ तुम गाँव के कुँवर साहब हो। कोई ऐसी हरकत मत करना कि तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग जाए।’

बस में भी उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। बस चलने के साथ उसकी कुँवर साहबी के छिलके एक-एक कर उतर रहे थे और वह तेजी से वापस जनार्दन बन रहा था। मैंने कहा, ‘भाई, यह जो तुम्हें पाँच सौ रुपये ससुराली धन के रूप में मिले हैं, लगता है वे किसी डॉक्टर के खाते में चढ़ जाएँगे।’

वह चुप बैठा था। थोड़ी देर में मैंने कहा, ‘कहो कुँवर साहब! क्या हाल है?’

वह कुढ़ कर बोला, ‘चूल्हे में गयी कुँवर साहबी। तुम शहर पहुँचकर मेरी दवा- दारू का इंतजाम करो। कुँवारा आदमी हूँ। बीमार पड़ जाऊँगा तो कोई दो रोटी भी नहीं देगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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