श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #6 ☆

 ☆ कविता ☆ “शहर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

मेरा शहर रूठा नहीं

भीतर से मेरे मिटा नहीं

चाहें रहूं मैं कहीं

जल उसका सूखा नहीं

 

वो गलियां वो गालियां

वो कलियां वो रलियां

यहां नहीं दिखाई देती

वो ममता भरी जिंदगियां

 

वो भी थोडी ही वैसा ही है

वोह भी तो अकेला ही है

अब ना इधर जान के मायने है

ना उधर पहचान की जरूरत है

 

शाम को मै आंसू बहाता हूं

वो अब बस शराब बहाता है

गुज़रे हुए जमाने की

बस यादें जलाता है

 

अब वहां लोग तो बहुत हैं 

इंसान तो पहले से कम हैं

जैसे यहां जमीन तो बहुत है

मगर पानी पहले से कम है….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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