सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  कथा-कहानी  ☆ अक्स ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

अंसाक्का के घर में आज सुबह से धांधली चल रही थी। उसकी बहू सुमन… सुमा पेट से थी। आज सुबह से उस के पेट में दर्द हो रहा था। असह्य वेदनासे वह कराह रही थी। चिल्ला रही थी। अंसाक्का ने हडबडी से चूल्हा जलाया और उस पर पानी का हंडा रख दिया। फिर गरमागरम पानी से बहू को नहलाया। फिर सदाशिव अपनी बहू को ले कर अस्पताल गया। अंसाक्का आदतन रोज की तरह घर का काम तो कर रही थी, लेकिन उसका पूरा ध्यान अस्पताल से आनेवाले संदेश की ओर था। 

उसे यकीन था, बेटा हो गया, यही संदेश आनेवाला है। वैसे अपने खानदान की यही परंपरा है। अपनी सास को पहला बेटा हुआ, वही तो मेरा पति है, फिर मुझे सदाशिव हुआ। देवर का सोमू पहलाही बेटा और सोमू का समीर भी पहला। अपनी बेटी सुरेखा को भी पहला बेटा ही है। सदाशिव को भी पहला बेटा ही होगा। अंसाक्का काम करते-करते सोच में डूबी थी।

सुमा का पेट आगे से उभर आया था। बहुत तकलीफ झेल रही थी। बार-बार उल्टी होने के कारण बेजान-सी हो गई थी। मुरझाई हुई दिखती थी। ये सारे लक्षण तो बेटे के ही हैं न?

दोपहर को सदाशिव घर लौटा। कहने लगा, ‘माँ तुम दादी बन गई हो। तुम्हें पोती हुई है।‘

‘पोती? ये कैसे हो सकता है?

‘लेकिन हुआ तो ऐसा ही है।’

‘मुझे पोता चाहिये था।‘

‘तुम्हारी इच्छा से ईश्वर की इच्छा बलवती है न!

अंसाक्का पर जैसे निराशा का पहाड़ टूट पड़ा। वह गुस्से से मुँह फुला कर बैठ गई ।

जच्चा-बच्चा दोनों खुशहाल होने के कारण शाम को डॉक्टर साहब ने उन्हें घर जाने की इज़ाज़त दी।

जच्चा-बच्चा घर आए, लेकिन अंसाक्का ना तो उठी ना दोनों की अला-बला ली। वैसी ही रूठी-रूठी सी, एक कोने में दुबक कर बैठी रही। फिर पड़ोसन कुसुम ने बच्चे की अला-बला लेकर नज़र उतारी और जच्चा-बच्चा दोनों अंदर आए। 

शाम को अड़ोस-पड़ोस की औरतें बच्ची को देखने आईं।

कुसुम ने कहा, ‘मौसी, देख तो कितनी सुंदर बिटिया है!’

‘होगी! मुझे क्या मतलब? बेटा होना चाहिये था! हमारे खानदान की यही परंपरा है। यह अभागी बीच में कैसे टपकी?’

‘ऐसा क्यूँ कहती हो? पहली बेटी, धन का पिटारा’

‘हां, लक्ष्मी आई है पोती के रूप में।’

‘कितनी सुंदर है न बच्ची!

‘प्यारी… प्यारी…’

‘उजली… उजली….’

नाक-नक्शा अंसाक्का जैसा ही लग रहा है।’

‘हां री, बिल्कुल दादी पर गई है पोती।’

औरतें गपशप लड़ा रही थीं।

‘हां! दूसरी अंसाक्का’

अब अंसाक्का के मन में कौतूहल जाग उठा। वह बहू की ओर देखने लगी।

‘अरी इतनी दूर से क्यों देख रही हो? यहाँ नजदीक आओ। अनुसूया अंसाक्का की हम उम्र पड़ोसन। वह उसका हाथ पकड़ कर बच्ची के पास ले गई। नाक, नयन, फूले हुए गाल, सब कुछ अंसाक्का जैसा, मानो दूसरी अंसाक्का। अंसाक्का को लगा जब मैं पैदा हुई, तो ऐसी ही दिखती होऊँगी। उसने बच्ची को उठाकर गोद में लिया और उसे चूमती रही…चूमती रही… चूमती ही रही।

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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