डॉ. मुक्ता
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोश रिश्ते। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 194 ☆
☆ ख़ामोश रिश्ते ☆
‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु हैं कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं, दर्द के संबंधों और उनकी हक़ीक़त को, जिनका आधिपत्य पूरे समाज पर स्थापित है। रिश्ते ख़ामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अन्यथा आपके शब्दों की गूंज लौट आती है अर्थात् आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है और अधिकाधिक धन कमाना… उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। वह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे वह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ एक-दूसरे से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा आदमी बाहर निकल ही नहीं पाता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।
आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंध तो सृष्टि- नियंता बना कर भेजता है और उन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिन्हें आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल वे ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इनका प्राधान्य है। इसलिए जब तक उसकी उपयोगिता-आवश्यकता है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए और उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण हम प्रतिदिन गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी व माता-पिता का रिश्ता भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन के बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के विमिन्न ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद कर, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।
आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई आदि सब संबंधों को ताक पर रख कर– हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन उस अबला को ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है… पुरुष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।
आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव बच्चों, युवाओं व वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न- साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी हाथ डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है…माता- पिता व गुरुजनों का बच्चों को सुसंस्कारित न करना; उनकी ग़लत हरक़तों पर बचपन से अंकुश न लगाना …उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुख -सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना…जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मन-माने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित हैं। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।
आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर रही हैं और प्रेम, सौहार्द, त्याग, सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में स्वेच्छा व प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फ़िक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अवांछित-अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा; एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख उनसे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह रूपी संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’ व विवाहेतर संबंध स्थापित करना, सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह- बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता- पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते ही उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना व परिवारजनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा कर, उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का प्रमुख मक़सद होता है।
ह़ैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है, तो हमारे लिए सुख- सुविधाएं जुटाना तो आपका प्राथमिक दायित्व हुआ। सो! हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं। इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में आता है स्टोर-रूम, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती, क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’ व मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को सुसंस्कारों से पल्लवित-पोषित कर सकते हैं? कई बार तो उनके आत्मज उन्हें माता-पिता के रूप में स्वीकारने व अहमियत देने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं; अपनी तौहीन समझते हैं।
आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख व कान बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां और परिवार में समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करने के लिए सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है… ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’ और ‘द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना ‘…इस से स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व मौन रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है /अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां चित्रण करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का… जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ …जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं…हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब उद्धरण 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता से उद्धृत हैं, जो वर्तमान का दस्तावेज़ हैं। विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण चहुंओर व्याप्त है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?
‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार कर, दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। लोग इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; जबकि आजकल एक छत के नीचे अजनबी-सम रहने का प्रचलन है। सो! वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आज का फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर… प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…कि इन विषम परिस्थितियों में वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनोमस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार दस्तक देता है।
काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, ‘पहले आप,पहले आप’ की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहती और हमें मौन रूपी सन्नाटे के दंश नहीं झेलने पड़ते। वैसे रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में बरक़रार रहते हैं। संबंधों को शाश्वत रूपाकार प्रदान करने के लिए ‘मैं हूं न’ के अहसास दिलाने अथवा आह्वान मात्र से, संकेत समझ कर वे चिरनिद्रा से जाग जाते हैं और उनकी गूंज लम्बे समय तक रिश्तों को जीवंतता प्रदान करती है।
रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना वे रेत के कणों की भांति, पल-भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा, रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! ‘न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो’…यही जीवन में सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और मूल-मंत्र व शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब वे तहे- दिल से निकलें। ‘खामोश सदाएं व दुआएं, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन मौन व सन्नाटा पसर जाता है; जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने के लिए, संशय, संदेह व शक़ को जीवन से बाहर का रास्ता दिखा देना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि स्नेह-सौहार्द, परोपकार, त्याग व समर्पण संबंधों को चिर-स्थायी बनाए रखने की संजीवनी है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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