श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 179 ☆
☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
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कोई नहीं कबीर सा, जिनकी गहरी मार
जो कुरीतियों पर सदा, भरते थे ललकार
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सबसे ऊँचा जगत में, मानवता का धर्म
बता गए कबिरा हमें, जीवन का यह मर्म
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रास कभी आया नहीं, झूठ-कपट, पाखण्ड
साथ खड़े हो सत्य के, दिया झूठ को दण्ड
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डरे हुये थे उस समय, धर्मी ठेकेदार
कबिरा ने पाखण्ड पर, किया सदा ही वार
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गागर में सागर भरा, ऐसे सन्त कबीर
अपने दोहों से रची, सामाजिक तस्वीर
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मानव मानव में कभी, किया न उनने भेद
पढ़ कुरान, गीता सभी, धर्म परायण वेद
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शिक्षा ऐसी दे गए, आती नित जो काम
उन पर करने से अमल, मिलते शुभ परिणाम
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सिद्धांतों से अलग हट, दिया सार्थक ज्ञान
जाति-धरम को भूलकर, देखा बस इंसान
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आज धरम के नाम पर, मानवता है लुप्त
आज विचारक, कवि सभी, जाने क्यों हैं सुप्त
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हमें आज भी दे रहे, उनके दोहे सीख
पढ़ने से “संतोष” हो, नाम अमिट तारीख
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© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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