श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सर्वधर्म समभाव का संदेश देती एक सार्थक लघुकथा “प्रेम प्याली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 166 ☆
☆ लघुकथा – प्रेम प्याली ☆
बहुत ही प्यारा सा नाम “प्याली” । परंतु केवल नाम ही काफी नहीं होता, वह कौन है, कहां से आई, माता पिता कौन है? किस बिरादरी की है उसे कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए? सारे सवालों को लेकर आज वह फिर पेड़ के नीचे बैठी अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी।
कैसे जानूँ? किससे पूछूं? यही सोच रही थी, कि सामने से पुतला दहन करने के लिए बीस पच्चीस नौजवान युवक तेज रफ्तार से सड़क से निकल कर जा रहे थे।
प्याली का घर यूँ कह लीजिए सड़क के किनारे एक पन्नी लगी टूटा फूटा कच्चा मिट्टी का ईट दिखाई देता दीवारों से घिरा एक कमरा। जिसमें प्याली में अपना बचपन देखा पालन-पोषण करने के हिसाब से उसने सिर्फ अपनी जिसे सभी वहाँ पर दादी कहते थे। उसी के साथ रहती थी।
आज प्याली बड़ी हो चुकी थी दादी से हर बार सवाल करती… “दादी अब तो बता दो मैं कौन हूं? मेरा बचपन, मेरी पहचान और मेरा धर्म क्या है?”
वह पास में ही सिलाई का काम सीखती थी। स्कूल का तो सिर्फ नाम सुना था पढ़ने लिखने की बात तो कोसों दूर थी।
अचानक जोर से हल्ला-गुल्ला गुल्ला मचने लगा। चौक पर पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती आने लगी पुतला दहन करने वाले तितर-बितर हो यहाँ वहाँ छुपने लगे।
एक बहुत ही खूबसूरत सा नौजवान युवक शायद चोट ज्यादा लगी थी। वह दौड़ कर जान बचाने प्याली की टूटी-फूटी झोपड़ी में घुस गया। थोड़ी देर बाद भीड़ शांत हो चुकी थी। पुलिस तहकीकात करती नौजवान युवकों को पकड़ – पकड़ कर ले जाने लगी। आँखों ने जाने क्या इशारा किया प्याली समझ नहीं सकी पर एक इंसानियत ममता, दया, बस वह बाहर खड़ी पुलिस वाले से बोली… “यहाँ कोई नहीं है। मैं तो दादी के साथ रहती हूं।” दादी जो अब तक देख रही थी। बाहर अपनी लकड़ी टेकते हुए निकली और बोली… “यह तो प्रेम प्याली की झोपड़ी है। साहब यहाँ जात-पात ऊंच नीच नहीं होता।”
पुलिस वाले चले गए नौजवान जो छुपा बैठा था दर्द से कराह रहा था।
प्याली ने उसके सामने गरम-गरम चाय का कप और एक ब्रेड का टुकड़ा रख दिया। प्याली देख रही थी उसने कही… “छोड़ क्यों नहीं देते यह सारा लफड़ा, जिंदगी बहुत अनमोल है, खुश होकर जियो।”
नौजवान युवक धीरे से बोला… “यह शरीर और यह जान दोनों तुम्हारा हुआ। क्या? तुम प्रेम प्याली बनना चाहोगी?” दादी ने चश्मा आँखों पर ऊपर चढ़ाते हुए देख कर हंसने लगी.. “क्यों नहीं! “दादी ने बताया” मैं दूसरे धर्म की थी समाज की नहीं थी। इसके पैदा होते ही इसकी माँ ने सदा – सदा के लिए मुझे छोड़ बेटे को लेकर चली गई थी। अब यह सिर्फ तुम्हारा प्रेम है। ऊंच-नीच का भेद नहीं सिर्फ तुम दोनों बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ दो।” बरसों बाद उसका अपना बेटा नहीं पर पोता घर लौट आया था। प्याली, दादी के गले झूल गई। प्रेम उठकर दादी के पैरों गिर पड़ा।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈