(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता – प्रतिबिंब…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 227 ☆
कविता – प्रतिबिम्ब…
हर बार एक नया ही चेहरा कैद करता है कैमरा मेरा …
खुद अपने आप को अब तक
कहाँ जान पाया हूं,
खुद की खुद में तलाश जारी है
हर बार एक नया ही रूप कैद करता है कैमरा मेरा
प्याज के छिलकों की या
पत्ता गोभी की परतों सा
वही डी एन ए किंतु
हर आवरण अलग आकार में ,
नयी नमी नई चमक लिये हुये
किसी गिरगिट सा,
या शायद केलिडेस्कोप के दोबारा कभी
पिछले से न बनने वाले चित्रों सा
अक्स है मेरा .
झील की अथाह जल राशि के किनारे बैठा
में देखता हूं खुद का
प्रतिबिम्ब .
सोचता हूं मिल गया मैं अपने आप को
पर
जब तक इस खूबसूरत
चित्र को पकड़ पाऊं
एक कंकरी जल में
पड़ती है
और मेरा चेहरा बदल जाता है
अनंत
उठती गिरती दूर तक
जाती
लहरों में गुम हो जाता हूं मैं .
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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