डॉ. जवाहर कर्णावट
☆ अंग्रेजी के मोहपाश में हिंदी भाषी— ☆ डॉ. जवाहर कर्णावट ☆
हिन्दी भारतीय लोकतंत्र के व्यापक व्यवहार की भाषा है. स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जागृति और एकता हेतु महात्मा गांधी ने हिन्दी को अमोघ शस्त्र बनाया. भारत के अलावा दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, फि़जी, गयाना आदि देशों में भी जन-जागरण में हिन्दी की सक्रिय भूमिका रही. उस समय हिन्दी का प्रयोग आजादी केन्द्रित था और आज यह राजभाषा और जनभाषा के रूप में लोकतंत्र और मीडि़या दोनों का आधार बनी हुई है् ।आजादी के बाद इन 76 वर्षों में जनसाधारण के बीच आपसी संपर्क, संवाद, सूचना संचार और मनोरंजन की भाषा के रूप में हिन्दी ने एक लम्बी यात्रा तय की है. चूंकि लोकतंत्र की सफलता जन भाषा पर ही निर्भर करती है. इसीलिए राजभाषा केवल जनभाषा ही हो सकती है. हमारे संविधान निर्माताओं ने बड़ी दूर अंदेशी के साथ हिन्दी को राजभाषा के रूप में चुना. यह स्थान हिन्दी को इसीलिए नहीं दिया गया था कि यह देश की प्राचीन एवं समृद्ध भाषा है, बल्कि इसीलिए दिया गया था कि यह भारत के अधिकतर भागो में अधिकांश लोगों द्वारा समझी और बोली जाती हैं और इसके माध्यम से हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अधिक मजबूत बना सकते हैं.
हमारे सामने मुख्य प्रश्न यह है कि संवाद और मनोरंजन की भाषा से हटकर – हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्र शिक्षा, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में हिन्दी कितनी फल-फुल पाई है ? यह किसी से छिपा नहीं है. दरअसल देश में अंग्रेजी भाषा के जन-विरोधी शोषणपरक इस्तेमाल को समझने की कभी कोशिश नहीं की गई. हमारे कर्णधार अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि राजनीति, शासन, प्रशासन, शिक्षा और न्यायिक व्यवस्था आदि में अगर अंग्रेजी का वर्चस्व टूटता है तो निचले तबके के लोग ही आगे आएंगे जिनकी लड़ाई लड़ने का दावा ये लोग कर रहे हैं.
लोकतंत्र में आम-जन की सहुलियत हेतु सरकारी काम-काज में राजभाषा नीति-नियमों का कड़ाई से पालन करने के प्रयास अवश्य हो रहे हैं किन्तु इस बारे में जनता में कोई जागरुकता नहीं दिखाई देती है. वास्तव में तो हिन्दी को राजभाषा के रूप में सफल न बनाते हुए केवल इसका शोर मचाते रहने के पीछे अंग्रेजी को जारी रखने की मानसिकता ही है.
इससे अन्य भारतीय भाषाओं में हिन्दी के प्रति एक विरोधी वातावरण बनाने में भी सुविधा हुई. अगर सचमुच में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को लाना होता तो उसके लिए हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच आपसी समन्वय स्थापित किया जाता ताकि हिन्दी को थोपने जैसी निर्मूल धारणा को राजनीतिक आधार नहीं मिलता. किन्तु ऐसा नहीं हो सका और इसका दुष्परिणाम यह भी हुआ कि दक्षिण भारत के विरोध के हवाले अंग्रेजी को एक राष्ट्रीय आवश्यकता बना दिया और सामाजिक जीवन में भी भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर अंग्रेजी को महिमा मंडित कर दिया गया. एक भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध भले ही उचित प्रतीत नहीं होता है किन्तु उस अंग्रेजियत से विकसित मानसिकता को उखाड़ फेंकना आवश्यक है जो हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था से मेल नहीं खाती.
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता का उदाहरण हमारे सामने हैं. लोकतंत्र में जनता को जनता की भाषा में न्यायिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अवसर मिलना चाहिए किन्तु हम आज भी सर्वोच्च न्यायालय में अपनी भाषा में न तो अपनी बात कह सकते हैं और न ही चर्चा कर सकते हैं. संसदीय राजभाषा समिति ने जब सर्वोच्च न्यायालय के काम-काज में हिन्दी को सम्मिलित करने की सिफारीश की तो प्रारंभिक स्तर पर ही अनेक बाधाएं खड़ी कर दी गई. देश के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से दर्शा दिया कि सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई में हिन्दी को शामिल करना व्यावहारिक दृष्टि से संभव नहीं होगा. यदि आप इस रिपोर्ट को पढेंगे तो आपको स्पष्ट रूप से लगेगा कि आयोग हिन्दी के प्रति कितना पूर्वग्रह से ग्रसित है. मीडि़या में हिन्दी की चर्चा करे तो एक बड़ा तबका इस बात से बेहद खुश है कि बाजार और मनांरंजन की भाषा के रूप में हिन्दी का जबरर्दस्त फैलाव हुआ है. टी.वी. रेडियो, फिल्में तथा अखबार इसके बड़े वाहक बने हैं. महानगरीय विकास की धारा छोटे शहरों और कस्बों की ओर बढ़ने से क्षेत्रीय स्तर पर मीडि़या को मिला आधार अब अत्याधिक व्यापक हो गया है.इंडियन रीडरशीप सर्वे के हाल ही के आंकड़े बताते है कि भारत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले दस अखबारों की सूची में हिन्दी के अब पांच समाचार पत्र शामिल है. मीडिया में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की पकड़ मजबूत होते देख कई मीडि़या घरानों ने अपने आर्थिक दैनिक का प्रकाशन हिन्दी में भी प्रारम्भ कर दिया है. . इलेक्ट्रानिक मीडि़या ने भी ,खबरों, मनोरंजन और धारावाहिकों से हटकर बिजनेस चैनलों की सफलता ने भी यह दर्शा दिया है कि लोकतंत्र में आम लोगों तक पहुंचने और व्यवसाय की सफलता के लिए हिन्दी का कोई विकल्प नहीं हो सकता. तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशो में हिन्दी समाचार-पत्रों की शुरूआत और इसकी बढ़ती प्रसार संख्या ने यह मिथक तोड़ दिया है कि हिन्दी मीडि़या केवल उत्तर भारत तक ही सीमित है.
विश्व के प्रमुख देशों में भी सेटेलाइट के माध्यम से हिन्दी चैनलों ने अपनी लोकप्रियता बना ली है और स्थानीय स्तर पर भी मारीशस, फिजी, ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में हिन्दी के कार्यक्रम नियमित रूप से प्रसारित हो रहे. हिन्दी की वैब पत्रिकाओं ने भी सम्पूर्ण विश्व में अपना जाल फैलाया है. इस प्रकार हिन्दी का प्रिंट इलेक्ट्रोनिक और वैब मीडि़या का एक दूसरा पक्ष भी हमारे सामने है. विज्ञापन उद्योग ने हिन्दी भाषी समाज का दोहन करने के लिए उसे अलग से लक्षित किया है तथा बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता ब्रांड के बाजार में उसे सीधे संवाद की भाषा में बदला है. इसी कारण देश में एक दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है.नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा में लिखने-पढ़ने और यहॉं तक कि उसमें बोलने का काम भी पिछली पीढ़ी की तुलना में अब कम करती जा रही है जबकि हिन्दी का इस्तेमाल ज्यादा फर्राटेदार ढंग से करने लगी है. इस प्रक्रिया में कई प्रकार की नई समस्याएं भी सामने आ रही है. अंग्रेजी की शब्दावली उस पर हावी हो रही है और देवनागरी लिपि का प्रयोग लगातार घट रहा है. हिन्दी के सामने यह जबर्दस्त चुनौती है कि उसे भाषा के स्थान पर बोली बनने की ओर अग्रसर किया जा रहा है. हिन्दी व्यापार-व्यवसाय के लिए बाजार की भाषा अवश्य बने किन्तु बाजारु भाषा नहीं. वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजी की महत्ता कुछ कार्यों एवं स्थानों पर भले ही हो किन्तु हमारे दैनिक जीवन एवं सामाजिक व्यवहार, जहां हिन्दी से बखूबी करम चलाया जा सकता है, अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता को त्यागना होगा. भारत में हिन्दी क्षेत्रों की शहरी, अर्धशहरी एवं ग्रामीण आबादी भी अंग्रेजी के मोहपाश में अब इस तरह जकड़ती जा रही है जैसे अब देश को उन्नत कृषकों, कुशल कारीगरों और कुशल श्रमिकों की नहीं अपितु केवल इंजीनियर, आई.टी. और मेजेजमेंट गुरुओं की ही आवश्यकता है. हमें चंद अंग्रेजी परस्त लोगों की सुविधा की खातिर बहुसंख्यक हिन्दी भाषी समाज को अपनी भाषा से वंचित रखने के षडयंत्र को बेनकाब करना होगा. लोकतंत्र में जन-जन में अपनी भाषा के प्रति विश्वास और सम्मान की भावना को बरकरार रखने की महती आवश्यकता होती है. इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी की ढेरों सुविधाओं को लोकप्रिय बनाना होगा.
समूचे विश्व में हिन्दी का परचम लहराने के लिए भारत को हिन्दी के प्रयोग संबंधी उच्च आदर्श स्थापित करने होंगे. लोकतंत्र की प्रमुख शक्ति के रूप में आज देश में युवाओं की संख्या देश की आबादी का लगभग 35% है. हमारे युवा शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हिन्दी का इस्तेमाल तुलनात्मक रूप में कितना कर पा रहे हैं ? आज हमारी सबसे बड़ी चुनौती नई पीढी को हिन्दी से जोड़ने की है. नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के उदघाटन अवसर पर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने कहा था – “हिन्दी में निखार और शक्ति तभी आएगी जब व्यापारी अपने व्यापार के लिए, वैज्ञानिक अपनी खोजों को समझाने के लिए तथा सार्वजनिक लोग आशापूर्ण दृष्टिकोण रखने के लिए इसका प्रयोग करें.” आज भी यह विचार प्रश्नचिह्न के रूप में हमारे सामने है.
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© डॉ. जवाहर कर्नावट
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