श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छे विचारों का अकाल”।)
अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल… श्री प्रदीप शर्मा
आजकल मौलिक और अच्छे विचारों का इतना अभाव हो गया है, कि मेरा यह शीर्षक भी मौलिक नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “अच्छे विचारों का अकाल” इसका जीता जागता उदाहरण है, जिसके लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद श्री अनुपम मिश्र हैं। श्री मिश्र का इतना ही परिचय पर्याप्त है कि वे सुविख्यात कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र के सुपुत्र हैं।
मनुष्य ईश्वर की एक अनुपम कृति है। मनुष्य को इस जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी यूं ही नहीं माना जाता। हमारी संभावनाओं का आकाश कितना विस्तृत और विशाल है, हम ही नहीं जानते। सीखने से ही तो जानना शुरू होता है। सतत अभ्यास, चिंतन मनन और अध्ययन का ही यह नतीजा है कि मनुष्य ने जितना खोजा है, उससे अधिक ही पाया है और विज्ञान इतने आविष्कार कर पाया है।।
शक्ति किसी की भी हो, होगा कोई अज्ञात अदृश्य नियंता, लेकिन यह मनुष्य ही हर जगह आगे बढ़ा है, कदम से कदम मिले हैं और उसने हर क्षेत्र में आशातीत सफलता पाई है, उसकी ही मेहनत और लगन का यह नतीजा है कि उसने एवरेस्ट पर और चांद पर भी विजय पताका फहराई है।
हम सब एक मिट्टी के ही तो बने हैं, फिर क्यों आज हमारी मौलिकता को जंग लग गया है। अचानक ऐसा क्या हो गया है कि हमने सोचना ही बंद कर दिया है। आजकल हमारे लिए कोई और ही सोचता है, और हम उसकी ही जबान बोलने लग गए हैं।।
याद आते हैं वे दिन, जब कैसे कैसे विचार अगड़ाई लेते थे, कभी दुनिया को बदल देने का ख्वाब आता था तो कभी उस दुनिया के रखवाले से जवाब तलब करने का मन होता था। एक आग थी, शायद वह अब बुझ गई है।
आज इस सोशल मीडिया के युग में हमारे लिए सोचने के लिए थिंक टैंक मौजूद है, फोटो शॉप के साथ साथ आईटी सेल भी हैं, और पूरी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है, जो हर पल आपको कथित ज्ञान फॉरवर्ड करती रहती है।
आप यंत्रवत, एक ऑपरेटर की तरह, किसी से ऑपरेट होते रहते हो।।
लगता है, हमारे विचारों को, हमारी मौलिकता को दीमक लग गई है। अगर अलमारी में रखी किताबों की देखभाल नहीं की जाए, तो इन्हें भी दीमक खा जाती है, हम कहां आजकल अपने दिमाग की खिड़की खुली रखते हैं।
बाहर के खुले विचारों की हवा का अंदर प्रवेश ही नहीं हो पाता। बस सोशल मीडिया ने जो आपको परोस दिया, उससे ही आपका पेट जो भर जाता है। यही तो है विचारों का जंक फूड, पास्ता, मैगी और बर्गर जो आपको ऑनलाइन स्टोर्स, भर भर कर, घर बैठे उपलब्ध करवा रहा है।
जब चिंतक और विचारक, राजनीतिक प्रचारक बन जाए तो समझिए, अच्छे और मौलिक विचारों का अकाल पड़ गया है। इस विकृति से बचने के लिए हमें वापस प्रकृति की गोद में ही जाना होगा। उन्मुक्त और स्वच्छंद विचार अभिव्यक्ति की प्राणवायु है। हमारे अंदर के प्रेम के झरने को फूटने दें, दिमाग के ओजोन परत की भी कुछ चिंता करें, जंक फूड ना खाएं, ना परोसें। आइए अच्छे विचारों की पैदावार बढ़ाएं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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