श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता स्वर्ण-महल ठुकराकर सीता…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 186 ☆
☆ स्वर्ण-महल ठुकराकर सीता… ☆ श्री संतोष नेमा ☆
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मिलन की आस लगा कर बैठीं
विरह की आग जला कर बैठीं
व्याकुल हैँ बिरहाकुल सीता
सब सन्त्रास भुला कर बैठीं
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जँह अशोक वहां शोक कहां है
ध्यान योग पर रोक कहाँ है
स्वर्ण-महल ठुकराकर सीता
तृण धरी ओट लगा कर बैठीं
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दृण विश्वास दृण प्रेम आपका
धीरज धरम अरु नेम आपका
मन पर रख कर लगाम स्वयं ही
दिल में उजास जला कर बैठीं
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दशानन ने भी खूब डराया
ख़ौफ़ किसी का काम ना आया
चंद्रहास भी चमकाई पर
जानकी शांत करा कर बैठीं
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झूठ छलावा कर करके हँसता
पर सिय के हिय सत्य ही बसता
हर न सका मन को कभी रावण
सिया विश्वास लगा कर बैठीं
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त्याग और बलिदान आपका
संकल्पों का जय गान आपका
अग्निपथ पर खुद चलकर सीता
नया उल्हास जगा कर बैठीं
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पति दुख में बन कर हमजोली
वन- गमन संग राम के होली
चल कर नंगे पैर सिया प्रभु संग
स्वयं उपवास लगा कर बैठीं
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जीवन से सीता हार जाती
यदि त्रिजटा न समझा पाती
आठों पहर जप नाम राम का
मन में निवास बना कर बैठीं
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© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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