श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पितृ पक्ष और पितृ दोष”।)

?अभी अभी # 171 ⇒ पितृ पक्ष और पितृ दोष? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आत्मा तो खैर अमर है, हम तो जीवात्मा हैं, क्योंकि हमारा शरीर तो नश्वर है, इसे एक रोज मिट्टी में मिलना है। संसार माया है, जगत मिथ्या है, फिर भी हमने देवताओं को दुर्लभ यह मनुष्य जन्म पाया है।

अजीब दुविधा है, फिर भी, जीना इसी का नाम है।

सूक्ष्म जगत में अगर आत्मा और परमात्मा की बात होती है, तो इस स्थूल जगत में दुष्टात्मा और पापात्मा का भी वास होता है। ये कोई प्रेतात्मा नहीं, जीते जागते हाड़ मांस के ही लोग होते हैं, जो संत पुरुषों और सज्जनों का जीना हराम कर देते हैं। कई अवतार हो गए, कितनी बार पापियों और दुष्टों का सफाया हुआ, लेकिन परिणाम वही, दिन भर चले अढ़ाई कोस। इन अवतारों से तो हमारा अवतारी भला, और नतीजा, स्वच्छ भारत अभियान। ।

अच्छाई और बुराई ही सत्ता पक्ष और विपक्ष है।

पितृ पक्ष इन सबसे परे है।

जब हमारे शुद्ध चित्त पर माया का पर्दा पड़ जाता है, तो हम विकारों के अधीन हो जाते हैं। हमारा सरल स्वभाव काम, क्रोध, लोभ, भय और मत्सर के वशीभूत हो जाता है। रोग और बीमारी हमें घेर लेती है, वैसे ही कहां कम थे दुख जमाने में, जिंदगी गुजर गई कमाने में, और कमाया क्या, हर जगह स्वार्थ और पक्षपात। नतीजा पक्षाघात और हृदयाघात। सोचिए, क्या हालत हो गई होगी हमारी आत्मा की, और शुद्ध चित्त की। ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं। इस जीवन से तो मौत ही भली।

तो क्या मरकर आप मुक्त हो जाओगे। अस्मिता, आसक्ति और अहंकार तो मरने के बाद भी किसी का पीछा नहीं छोड़ते। सबसे बदले लेते रहोगे मरने के बाद भी। परिवार वाले अलग परेशान ! बोल गए थे जाने से पहले, सबसे चुन चुन के बदला लूंगा। वाकई बड़े परेशान थे। अच्छा हुआ, मुक्ति पा गए। ।

कितना अच्छा हो, जीव को मुक्तिधाम पहुंचते ही मुक्ति मिल जाए। चित्रगुप्त मुक्ति प्रमाण पत्र जारी कर दे। इनका शरीर शांत हो गया और इनकी आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। प्रमाणित आज की तिथि व वार सहित। लेकिन ऐसा होता कहां है। न जीवन इतना आसान और ना ही मुक्ति इतनी आसान। इसीलिए जो मरने के बाद भी कहीं अटके हुए हैं, भटके हुए हैं, कुछ अतृप्त हैं तो कुछ व्यथित, चिंतित, उनकी आत्मा की शांति के लिए कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित कर दिए जाएं तो क्या बुरा है।

इसी जगत में कुछ आत्माएं पवित्र और शुद्ध भी होती हैं। जो संत स्वभाव के होते हैं, जिनका चित्त शुद्ध होता है, अनासक्त कर्म करते हुए अन्य लोगों के लिए भी वे एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। कर भला सो हो भला। सबको अच्छे संस्कारों का पाठ पढ़ाते हुए जब ऐसी पुण्य आत्माएं हमसे बिछड़ती हैं, तो हमारे मन को बड़ा कष्ट होता है।।

उनकी स्मृति कभी मन से जाती ही नहीं। रह रहकर उनकी याद आती है और उनके साथ बिताए स्वर्णिम पल भुलाए नहीं भूलते। जिनका स्मरण मात्र ही मन को पवित्र कर देता है, पितृ पक्ष उनके पुण्य स्मरण का ही तो पल है, जब हम उन्हें अपनी श्रद्धा के पुष्प अर्पित करते हैं। श्रद्धा से बड़ा कोई श्राद्ध नहीं। भाव ही श्रद्धा है और अभाव ही अश्रद्धा।

मनुष्य का सबसे बड़ा धन ऋण मुक्त होना है। सबसे बड़ा ऋण तो हम पर हमारे पितरों का है। अच्छे संस्कारों की जो वसीयत हमें मिली है, उससे ऋण मुक्त इस जीवन में तो नहीं हुआ जा सकता लेकिन उस ओर प्रयास अवश्य किया जा सकता है। उनका श्रद्धापूर्वक आभार और स्मरण। ।

अपने तो खैर अपने ही हैं, इस जगत में कोई पराया नहीं। प्रत्यक्ष और परोक्ष, सभी अपने परायों के कल्याण और मुक्ति की प्रार्थना ही सच्चा पितृ पक्ष है। सर्वे सन्तु निरामया में जीव जन्तु भी शामिल होना चाहिए। श्रद्धा से किया कर्म ही तो कर्म कांड कहलाता है, फिर चाहे वह तर्पण हो अथवा अर्पण ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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