डॉ भावना शुक्ल
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके “साप्ताहिक स्तम्भ -साहित्य निकुंज”के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक भावप्रवण कविता “अनुरागी ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11 साहित्य निकुंज ☆
☆ अनुरागी ☆
प्रीत की रीत है न्यारी
देख उसे वो लगती प्यारी
कैसे कहूं इच्छा मन की
है बरसों जीवन की
अब तो
हो गए हम विरागी
वाणी हो गई तपस्वी
भाव जगते तेजस्वी
हो गये भक्ति में लीन
साथ लिए फिरते सारंगी बीन।
देख तुझे मन तरसे
झर-झर नैना बरसे
अब नजरे है फेरी
मन की इच्छा है घनेरी
मन तो हुआ उदासी
लौट पड़ा वनवासी।
देख तेरी ये कंचन काया
कितना रस इसमें है समाया
अधरों की लाली है फूटे
दृष्टि मेरी ये देख न हटे
बार -बार मन को समझाया
जीवन की हर इच्छा त्यागी
हो गए हम विरागी
भाव प्रेम के बने पुजारी
शब्द न उपजते श्रृंगारी
पर
मन तो है अविकारी
कैसे कहूं इच्छा मन की
मन तो है बड़भागी
हुआ अनुरागी।
छूट गया विरागी
जीत गया प्रेमानुरागी
प्रीत की रीत है न्यारी…
Beautifully expressed…. Wonderful words.