डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘नेताजी की मुक्ति’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 214 ☆

☆ व्यंग्य – नेताजी की मुक्ति 

नेताजी डेढ़ महीने से सख्त बीमार हैं। मरणासन्न हैं। अस्पताल वालों ने चार दिन पहले छुट्टी दे दी है। कहा कि अब कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए घर में ही प्राण त्यागें। अस्पताल में मरेंगे तो चेले-चपाटी झूठा दुख दिखाने के चक्कर में अस्पताल में तोड़फोड़ करेंगे। लाखों का नुकसान होगा। इसलिए घर में ही आखिरी साँस लें। अस्पताल वालों की जान सलामत रहे।

घर में सब लोग नेताजी की रवानगी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चमचे चौबीस घंटे ड्यूटी कर रहे हैं। भीतर भीतर कसमसा भी रहे हैं कि इनसे निपटें तो किसी दूसरे ‘उगते सूरज’ की सेवा में लगें। अब इनसे क्या मिलने वाला है?

नेताजी के दो बेटे हैं। बड़ा एमैले होकर राज्य के भ्रष्टाचार विकास निगम का अध्यक्ष हो गया है। छोटे के टिकट के लिए नेताजी पसीना बहा रहे थे कि अचानक बीमार हो गये। सब मंसूबे धरे रह गये। बिना चौखट पर दस बार माथा टेके कौन काम करेगा?

अब सब सोच रहे हैं कि नेता जी आराम से विदा हो जाएँ तो अच्छा। चार दिन से धरे हैं लेकिन प्राण पता नहीं कहाँ अटके हैं। मित्रों की सलाह पर उन्हें जगह बदल बदल कर लिटाया जा रहा है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि अपनी पसन्द की जगह पर प्राण आसानी से निकलते हैं।

इसीलिए बहुत से लोग अन्तिम समय में काशीवास करते हैं। लेकिन नेताजी के मामले में सब कोशिशें निष्फल हो रही हैं और मित्र-समर्थक समय व्यर्थ जाते देख खीझ में भुनभुना रहे हैं। एक कह रहे हैं, ‘इनका कोई काम टाइम से नहीं होता। हर जगह लेट होते हैं।’ दूसरे कहते हैं, ‘कम से कम वहाँ तो टाइम से पहुँच जाते।’

पार्टी के अध्यक्ष भी रोज एक चक्कर लगा जाते हैं। मामला लंबा खिंचते देख उनका भी मुँह बिगड़ता है। चौथे दिन उनका सब्र टूट गया। चेलों से भुनभुनाये, ‘अब यहीं अटके रहें क्या? और भी दस काम पड़े हैं।’

चौथे दिन उन्होंने वहाँ हाज़िर दो चार साथियों से गुपचुप सलाह ली। फिर एक विश्वासपात्र चेले को बुलाया और उसके कान में कुछ मंत्र फूँका। चेला धीरे-धीरे नेताजी के बिस्तर के पास गया और उनके कान के पास मुँह लाकर बोला, ‘टिकट मिल गया।’

नेताजी ने भक से आँखें खोल दीं। दोनों हाथ जोड़कर बुदबुदाये, ‘मेरा जीवन सार्थक हो गया। प्रभु को धन्यवाद। पार्टी को भी बहुत धन्यवाद।’

इतना बोलने के बाद उनकी आँखें मुँद गयीं। बहुत दिनों से छटपटा रही आत्मा अपने लिए निर्दिष्ट लोक को उड़ गयी।

अध्यक्ष जी का चेला बाहर निकला तो नेताजी के चेलों ने उसकी गर्दन पकड़ी, कहा, ‘तू झूठ क्यों बोला? अभी टिकट कहाँ मिला है?’

अध्यक्ष जी ने बीच-बचाव किया, बोले, ‘उनके मन की शान्ति के लिए बोल दिया तो क्या बुरा किया? अब ये आपसी विवाद छोड़ो और सब लोग सरजू भाई की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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