(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – शायद हल हो युद्ध ही…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 238 ☆
कविता – शायद हल हो युद्ध ही…
एक ही आस्था के केंद्र हैं दोनो के
पर दोनो बिल्कुल अलग अलग हैं
तमाम कोशिशों से बनाते हैं
तरह तरह के अत्याधुनिक मैटेरियल्स
तान दी जाती हैं
ऊंची ऊंची बड़ी भव्य इमारतें
इमारतों में
होते हैं प्रयोग अन्वेषण
बनते हैं नए नए हथियार !
सुरंग नुमा
कुछ दूसरी जगहों पर
पनपती हैं
अधिकारो की साजिशें
उड़ते हैं
मिसाइल्स अहम के
बकायदा भवन खाली करने की चेतावनियां दी जाती हैं
गिराए जाते हैं बम और राकेट
नष्ट कर दिए जाते हैं शहर
शायद हल हो युद्ध ही
क्रूरता का
पता नहीं जीतता कौन है
पर हर बार हार जाती है
इंसानियत…!
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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