श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…“।)
अभी अभी # 225 ⇒ आड़े तिरछे लोग… श्री प्रदीप शर्मा
अगर दुनिया चमन होती,
तो वीराने कहां जाते
अगर होते सभी अपने
तो बेगाने कहां जाते ….
फूल और कांटों की तरह ही इस संसार में अगर सीधे सादे, भोले भाले लोग हैं, तो आड़े तिरछे लोग भी हैं। कहीं ब्रिटेनिया ५०-५०, तो कहीं कुरकुरे, कहीं डाइजेस्टिव तो कहीं हाजमोला। क्योंकि यह दुनिया का मेला है, झमेला नहीं। यहां हर इंसान थोड़ा टेढ़ा है, पर मेरा है।
ऊपरी तौर पर हर व्यक्ति एक नेक, शरीफ इंसान ही होता है, लेकिन जीवन का संघर्ष उसे हर कदम पर सबक सिखलाता चलता है। सत्य पर चलो, लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र मत बनते फिरो, अमन चैन से रहो, लेकिन इतना भी नहीं कि किसी ने एक गाल पर चांटा मारा, तो दूसरा भी पेश कर दो। रक्षा, प्रतिरक्षा, अन्याय और अत्याचार का जवाब सत्याग्रह से नहीं दिया जाता। शठे शाठ्यम् समाचरेत ! घी टेढ़ी उंगली से ही निकाला जाता है। ।
पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। घर हो या दफ्तर, कुछ काम बिना उठापटक के नहीं होते।
जो कार्यकुशल लोग होते हैं, वे साम, दाम, दंड, भेद से अपने सभी अच्छे बुरे कार्य आसानी से संपन्न करवा लेते हैं, लेकिन जो लकीर के फकीर होते हैं, वे अपने तरीके से ही काम करते हैं।
ऊपर से हर आदमी आदर्श का पुतला नजर आता है, पढ़ा लिखा, समझदार, व्यवहारकुशल, भला आदमी, लेकिन जब जीवन की जंग जीतनी पड़ती है, तो उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, कहां कहां झुकना, तनना, गिड़गिड़ाना और मुस्कुराना पड़ता है, यह वह ही जानता है। पीठ पीछे वार सहन भी करना पड़ता है और समय आने पर करना भी पड़ता है। ।
आदमी आड़ा तिरछा पैदा नहीं होता, दुनिया जब उसे नाच नचाती है, तब उसे आड़ा तिरछा होना ही पड़ता है। आड़े तिरछे को आप बांका भी तो कह सकते हैं। हमारे बांके बिहारी को ही देख लीजिए, दुनिया ने कब उन्हें सीधा रहने दिया। अगर दुनिया आपको नाचने को मजबूर करे, तो समझदारी इसी में है कि आप इस दुनिया को ही नचा दो।
क्या आपने किसी सीधे आदमी को, किसी को अपनी उंगलियों पर नचाते हुए देखा है। बेचारा सीधा आदमी तो भागवान की टेढ़ी नजर के इशारे पर ही झोला उठा सब्जी लेने बाजार चला जाता है। मजाल है, रास्ते में दस मिनिट दोस्तों के बीच गुजार ले। किस गरीब इंसान की पेशी नहीं होती, कभी घर में, तो कभी दफ्तर में। ।
फिल्म पड़ोसन में भी एक भोला था, और एक टेढ़ा मेढा चतुर नार वाला मद्रासी संगीत मास्टर। लेकिन भोला तब तक ही भोला रहा, जब तक वह बांगरू रहा। लेकिन जैसे ही चलचित्रम् किशोरकुमारम् का वह शागिर्द बना, उसने भी घोड़े को घास खिला ही दी, उसकी भी सामने वाली खिड़की खुल ही गई और सिंदूरी, माथेरी बिंदी, उसकी बिंदू बन गई। टेढ़े को कोई टेढ़ा ही सीधा कर सकता हैं। कांटा ही कांटे का इलाज है, लोहा ही लोहे को काटता है।
कौन कहता है आज आपसे, शराफत छोड़िए, लेकिन इतना भी सीधा मत बनिए कि कल से कोई भी आड़ा तिरछा इंसान आपके बारे में यह कहता फिरे, देखो मैंने उसे सीधा कर दिया न, बहुत अकड़ता था। ।
अखाड़े की तरह दुनिया में भी दांव पेंच चलते हैं। गए जमाने पंचशील की कहानियों के…
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈