सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ लघुकथा – “बोलता आईना” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
राजा तक खबर पहुँची कि नगर में एक गरीब आदमी के पास आईना है, जो बोलता है।सवालों के जवाब भी देता है।
राजा ने आनन फानन में सिपाहियों को बुलाकर कहा –तुम गरीब से वो आईना लेकर आओ।वह जितनी भी मोहरें माँगे उसे दे देना पर आईना जरूर ले आना।
–गरीब ने धन लेने से इंकार कर दिया ये कहकर कि — ले जाओ पर इतना याद रखना , ये केवल सच बोलता है।ऐसा सच जो बर्दाश्त की हद से बाहर होता है ।नग्न सत्य।वो तो हम गरीबों के बस की बात है।
–सिपाही आईना ले आये। राजा परम प्रसन्न। उसने तोते से पूछकर बातचीत का मुहूर्त निकलवाया और बन ठन कर आईने के सामने बैठ गया।
—बोल आईने ! लोग मुझे कामदेव कहते हैं। महिलाएं आहें भरती हैं। मुझे सपनों का राजकुमार समझती हैं जो सफेद घोड़े पर बैठकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा।
—यह सच नहीं है।तुम्हारे मयूरासन का प्रताप है।
—मैं जहां भी जाता हूं लोग फूलों की पाँखुरियां बिछा देते हैं। जमीन पर चलने ही नहीं देते।
—झूठ। तुम्हें जमीन की एलर्जी है।
—मेरी तस्वीर की घर घर में पूजा की जाती है। मेरे लिये स्वतंत्र देवालय बनवा रखे हैं लोगों ने।
—‘झूठ। पता है पूजा उसी की करते हैं लोग जिससे खौफ़ खाते हैं।
—देख आईने। मुझे लगा था तू केवल सच बोलेगा पर तू तो मक्कार निकला।
—मैं मक्कार नहीं हूं। जब सारी दुनिया झूठ को सच और सच को झूठ समझ रही हो, तब अकेले तुम अपवाद कैसे हो सकते हो।
–राजा ने क्रोध में फुफकारते हुये आईना जमीन पर पटक दिया।
उसने देखा कि आईने के हजार हजार टुकड़े उसे देखकर ठठाकर हँस रहे हैं।
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© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈