श्री आशिष मुळे
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 30 ☆
☆ कविता ☆ “वसीयत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆
कभी सोचता हूँ
पीछे क्या छोड़ जाऊँ
सोना, जमीं और जागीर
इनका सदियों से जागीरदार
असल मालिक वो इनका
मैं तो कुछ पल का किरायेदार
मगर मेरे दर्या-ए-दिल का
मैं इकलौता वारिसदार
इसकी गहराई और ओछाई का
मैं अकेला पहरेदार
तो सोचा इसी दर्या के
मोतियों को पीछे छोड़ जाऊँ
किसी के बुरे वक्त में
उनके काम आ जाऊँ
अपने दर्द से निकली रोशनी
उन मोतियों में भर दूँ
अंधेरे में उलझाए किसी को
प्यार की राह दिखा दूँ
पाँव के नीचे
फिसलती जमीं किसी की
मेरे जिंदगी की रेत
उसके पैरों तले जमा दूँ
कोई खाता गोते
दर्या-ए-दर्द में
दे कर साहिल-ए-लफ्ज़
डूबने से बचा दूँ
दिल किसी का गर पड़े सूखा
उसे मेरे दर्या से भर दूँ
मै रहूँ या ना रहूँ
यह दिल वसीयत में छोड़ दूँ
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© श्री आशिष मुळे
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈