श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी झोपड़ी के भाग।)

?अभी अभी # 258 ⇒ मेरी झोपड़ी के भाग… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज सभी ओर केवल एक ही स्वर गूंज रहा है, राम आएंगे, राम आएंगे, राम आएंगे, मेरी झोपड़ी के भाग खुल जाएंगे। यह एक भक्त का भाव है, अनन्य भक्ति की पराकाष्ठा है।

अनन्य भक्ति उसे कहते हैं, जहां कोई दूसरा बीच में होता ही नहीं, भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।

शाब्दिक रूप से झोपड़ी एक गरीब की होती है और महल एक राजा अथवा किसी अमीर रईस का। जब कभी हममें भी यह अनन्य भाव जाग उठता है तो हम भी अपने आलीशान बंगले को कुटिया कह उठते हैं।।

हमने तो ऐसी आलीशान कोठी भी देखी है, जिसका नाम संतोष कुटी है। पहले संत कुटिया में रहते थे, आजकल कॉटेज का जमाना है। असली भक्त भी वही, जिसे अपना विशाल भवन भी गरीबखाना ही लगे।

हमारे इष्ट मर्यादा पुरुषोत्तम अगर अयोध्या के राम हैं, तो केवट, निषाद, वानर और शबरी के लिए वे एक वनवासी राम हैं, राम, लखन, और सीता का अगर वनवास नहीं होता, तो ना तो रावण का वध होता और ना ही भक्त यह कह पाते ;

राम, लछमन, जानकी

जय बोलो हनुमान की।

राम की अनन्य भक्ति के केवल दो ही प्रतीक हैं, जो हर भक्त के लिए आदर्श हैं। एक शबरी और दूसरे रामभक्त हनुमान। अपने इष्ट की प्राप्ति एक जन्म में नहीं होती। अपने आराध्य के दर्शन के लिए शबरी ने कितने जन्मों तक इंतजार किया होगा। पत्थर की अहिल्या में प्रभु श्रीराम के केवल पाद स्पर्श से ही प्राणों का संचार हो गया।।

भक्ति का पहला सोपान है, भक्त की अस्मिता और अहंकार का नष्ट होना।

लेकिन यह भी केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। राम क्या इतने पक्षपाती हैं कि वे केवल शबरी की झोपड़ी में ही आएंगे और मेरे दो बेडरूम किचन के फ्लैट में नहीं आएंगे। प्रभु तो प्रेम के भूखे हैं और शायद इसीलिए शबरी के जूठे बेर में उन्हें वही रस आता है जो द्वापर के श्रीकृष्ण को विदुर के साग में आया होगा।

यह एक भक्त का अनन्य भाव ही है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों को तुच्छ मानकर अपने विशाल निवास को एक झोपड़ी के रूप में ही प्रस्तुत करता है। वह यह भी जानता है एक भक्त सुदामा जब अपनी कुटिया से एक मुट्ठी चावल लेकर अपने अनन्य मित्र द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने जाता है, तो केवल एक मुट्ठी चावल से उसके भाग जाग जाते हैं।।

वह तो घट घट व्यापक अंतर्यामी निर्गुण और निराकार होते हुए भी एक भक्त की भावना के अनुरूप सगुण साकार हो उठता है ;

जाकी रही भावना जैसी

प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ;

अगर आपकी भावना प्रबल है तो आप जैसे भी हैं, जहां भी हैं, झोपड़ी, कुटिया, कॉटेज, सरकारी क्वार्टर, बंगला अथवा केवल चित्त शुद्ध, तो अयोध्या के राम, आएंगे, आएंगे, जरूर आएंगे।

काश हमारा भाव भी राम भक्त हनुमान समान ही होता जहां ;

मेरे मन में राम

मेरे तन में राम

मेरे रोम रोम में राम हैं।

जय श्री राम

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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