श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 226 ☆ सहजानुभूति
शब्द ब्रह्म है। हर शब्द की अपनी सत्ता है। भले ही हमने पर्यायवाची के रूप में विभिन्न शब्दों को पढ़ा हो तथापि हर शब्द अपना विशिष्ट अस्तित्व रखता है। समानार्थी शब्द भी एक तरह से जुड़वा संतानों की तरह हैं, एक ही नाल से जुड़े पर अलग देह, अलग विचार, अलग भाव रखनेवाले। शब्दों की इस यात्रा में ‘नग्न’ और ‘निर्वस्त्र’ शब्द पर विचार हुआ।
इस विचार के साथ ही स्मरण हो आया शुकदेव जी महाराज से जुड़ा एक प्रसंग। शुकदेव जी, महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे। ज्ञान पिपासा ऐसी कि बिना वस्त्र धारण किए ही साधना के लिए अरण्य की ओर चले। महर्षि वेदव्यास जानते थे कि पुत्र को साधना से विरक्त करना संभव नहीं तथापि ज्ञान पर पुत्र के प्रति आसक्त पिता भारी पड़ा। आगे-आगे निर्वस्त्र शुकदेव जी विरक्त भाव से भाग रहे हैं, पीछे-पीछे अपने वस्त्रों को संभालते पुत्र मोह में व्याकुल महर्षि वेदव्यास भी दौड़ लगा रहे हैं। अरण्य के आरंभिक क्षेत्र में एक सरोवर में कुछ कन्याएँ स्नान कर रही थीं। शुकदेव जी महाराज सरोवर के निकट से निकले। कन्याओं ने उसी अवस्था में बाहर आकर उन्हें प्रणाम किया। महर्षि ने दूर से यह दृश्य देखा, आश्चर्यचकित हुए। आश्चर्य का चरम यह कि महर्षि को सरोवर की ओर आते देख सभी कन्याएँ सरोवर में उतर गईं। महर्षि सोच में पड़ गए। अथक ज्ञान साधना में डूबे रहने वाले महर्षि अपने जिज्ञासा को रोक नहीं पाए और उन कन्याओं से पूछा, “मेरा युवा पुत्र निर्वस्त्र अवस्था में यहाँ से निकला तो तुम लोगों ने बाहर आकर प्रणाम किया। जबकि मुझ वस्त्रावृत्त वृद्ध ऋषि को आते देख तुम लोगों ने स्वयं को सरोवर के जल में छिपा लिया है। मैं इस अंतर का भेद समझ नहीं पाया। मेरा मार्गदर्शन करो कुमारिकाओ!” एक कन्या ने गंभीरता के साथ कहा,”महर्षि! आपका पुत्र नग्न है, निर्वस्त्र नहीं।”
निर्वस्त्र होने और नग्न होने में अंतर है। अघोरी निर्वस्त्र है, साधु नग्न है। एक वासना से पीड़ित है, दूसरा साधना से उन्मीलित है। एक में कुटिलता है, दूसरे में दिव्यता है।
यूँ देखें तो अपनी आत्मा के आलोक में हर व्यक्ति निर्वस्त्र है। निर्वस्त्र से नग्न होने की अपनी यात्रा है। बहुत सरल है निर्वस्त्र होना, बहुत कठिन है नग्न होना। नागा साधु, दिगंबर मुनि होना, अपने आप में उत्कर्ष है।
लेकिन यूँ ही नहीं होती उत्कर्ष की यात्रा। इस यात्रा को वांछित है सदाचार, वांछित है पारदर्शिता जो जन्म से मनुष्य को मिली है। प्राकृत होना है तो भीतर-बाहर के आवरण से मुक्त होना होगा, निष्पाप भाव से शिशु की भाँति नंग-धड़ंग होना होगा। इस संदर्भ में ‘नंग-धड़ंग’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,
तुम झूठ बोलने की
कोशिश करते हो
किसी सच की तरह,
तुम्हारा सच
पकड़ा जाता है
किसी झूठ की तरह..,
मेरी सलाह है,
जैसा महसूसते हो
वैसे ही जिया करो,
काँच की तरह
पारदर्शी रहा करो,
मन का प्राकृत रूप
आकर्षित करता है
प्रकृति के
सौंदर्य की तरह,
किसी नंग-धड़ंग
शिशु की तरह..!
स्मरण रहे, व्यक्ति नग्न अवस्था में जन्म लेता है, अगले तीन-चार वर्ष न्यूनाधिक प्राकृत ही रहता है। इस अवस्था के बालक या बालिका परमेश्वर का रूप कहलाते हैं। ईश्वरीय तत्व के लिए सहजानुभूति आवश्यक है। इस सहजानुभूति का मार्ग आडंबरों और आवरणों से मुक्त होने से निकलता है। मार्ग का चयन करना, न करना प्रत्येक का अपना निर्णय है।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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