श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अनन्य भाव …“।)
अभी अभी # 280 ⇒ अनन्य भाव … श्री प्रदीप शर्मा
अब मेरा तेरे सिवा
मेरे प्रभु कोई नहीं।
यार तू, दिलदार तू
तेरे सिवा कोई नहीं। ।
सरिता के जल की तरह ही तो होता है, भाव का भी प्रवाह, एक आया, एक गया। एक भाव से ना तो दुनियादारी चलती है और ना ही हमारा अपना संसार। भाव हमारे चित्त की एक अवस्था है। चित्त में ऐसा कोई RO अथवा प्यूरीफायर नहीं लगा, जो हमारे भावों को सतत शुद्ध करता चले। भक्ति से चित्त शुद्ध और मन निर्मल होता है। फिर यह अनन्य भाव अथवा भक्ति क्या है।
तू नहीं और सही, और नहीं, और सही, किसी भक्त के नहीं, विभक्त के लक्षण हैं। नारद भक्ति सूत्र में भी जिस नवधा भक्ति का वर्णन किया है, उसमें कहीं भी अनन्य भाव का उल्लेख नहीं है।
कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भक्ति के इन प्रकारों का अनन्य भाव से कोई लेना देना नहीं है। ।
आप चाहे कीर्तन करें, स्मरण, अर्चन, वंदन अथवा आत्म निवेदन करें, अनन्य भाव भक्ति की पहली शर्त है। दास्य और सख्य भाव तो अनन्य भाव की पराकाष्ठा है। जितनी अनन्य भक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी की अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के प्रति थी, उतना ही अनन्य भाव वानर श्रेष्ठ हनुमान जी महाराज का प्रभु श्री राम के प्रति था। यही तो होता है अनन्य दास्य भाव।
मेरे तो गिरधर गोपाल,
दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट
मेरो पति सोई।।
बस यही तो है मीरा की अनन्य भक्ति और अनन्य भाव। अनन्य यानी अन्य कोई नहीं। अगर परमेश्वर सखा हो सकता है तो क्या पति नहीं हो सकता। अनन्य भक्ति में कैसी कुल की मर्यादा और कैसी लोक लाज। उधर हमारे संत सूरदास तो अपने आराध्य बालकृष्ण की बाल लीलाओं में ही खोये हुए हैं। मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो। पूरा सूर सागर ही श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का महासागर है। ।
अनन्य भाव कभी एक तरफा नहीं होता। पहल उधर से भी होती है, तब ही अनन्य भक्ति का मार्ग पुष्ट होता है। जब प्रभु श्री राम शबरी के जूठे बेर खाते हैं, केवट की नाव पर चढ़ते हैं, तब ही अनन्य भक्ति की परिणति होती है।
सुदामा के मुट्ठी भर चावल हो, विदुर का साग हो अथवा अर्जुन के रथ की डोर सारथी के रूप में थामने की लीला हो, बिना अनन्य भक्ति और प्रेम के यह सब संभव नहीं।।
एक नन्हा बालक मां के शरीर से ही अलग होकर इस संसार में आता है। फिर भी मां बेटे कहां जुदा होते हैं। दोनों की एक दूसरे में जान बसी रहती है। ईश्वर से भी हमारा भी तो यही रिश्ता है। हम भी तो उसके बालक ही हैं।
बस हमारी डोर सदा उसके हाथ में रहे, यही तो अनन्य भाव है। कृष्ण भी अर्जुन को गीता में यही संदेश देते हैं ; मामेकं शरणं व्रज ;
एक राम है, एक राम है
एक राम है मेरा।
दूजा नाहीं, दूजा नाहीं मोरा। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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