श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुरभित सुंदर सुखद सुमन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆
कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं, जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है। आजकल जिस तेजी से लोग दलबदल कर रहें हैं,ऐसा लगता है मानो वैचारिक मूल्यों का कोई मूल्य ही नहीं रह गया है।
कीचड़ में धसा हुआ व्यक्ति बहुत जोर लगाने पर भी ऊपर नहीं आ पाता है। दलदल में डुबकी लगाना कोई मज़ाक की बात नहीं है लेकिन बिना मेहनत सब पाने की चाहत रखने वाला बिना दिमाग़ लगाए कुछ भी करेगा। सब मिल जायेगा पर नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।
रोज – रोज का कलह आपको भटकने के लिए कई रास्ते देगा। जब जहाँ मन पड़े चल दीजिए, आपके समर्थक आपका पीछा करेंगे, यदि कोई अच्छी जगह दिखी तो कुछ वहीं रुक कर अपना आशियाना बना लेंगे। मिलने – बिछड़ने का यह सफर दिनोदिन अनोखे रंग में रंगने लगा है। शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप दृढ़संकल्प करें और जीत न सकें। तो बस, जो सही है वही करें; उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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