सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ लघुकथा – “…इतना तो” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
— आप ना उन नेताओं की हिमायत न किया करें जो माँसाहारी हैं — शैवाल ने माँ से कहा।
— देखो बेटा ताजा दौर में कोई भी जानकारी किसी से छिपी नहीं है। केवल भारत में ही 80% माँसाहारी हैं। ऐसे में हिंसा और अहिंसा को लेकर क्या कहा जाये। बहुत बारीक सी रेखा है दोनों के बीच। क्या उन करीबी रिश्तों को इस बुनियाद पर खारिज किया जा सकता है कि वे माँसाहारी हैं? सारी दुनिया में धड़ल्ले से मांसाहार चल रहा है। प्राणियों की खेती होती है।
दवा के प्रयोग के लिये प्राणियों पर होने वाले जघन्य अत्याचारों को लेकर क्या सोचते हो। कत्लखाने और बीफ निर्यात हमारी भावनाओं से रुकेगा ?
— माॅम ! चलिए दूसरी बात करते हैं। अब तो वीगनिज़्म भी चल पड़ा है।
— तुम अपनी कहो। दूध के पदार्थों के बिना रह सकोगे।
— मैं बस इतना जानता हूं कि हम एक भी जीव को बचा सके तो धरती पर एहसान होगा।
— क्या इतना काफी नहीं कि हम शुद्ध शाकाहारी हैं।
— नहीं। हमें शब्दों में भी नैतिक बल भरना होगा। इतना तो कर ही सकते हैं।
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© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈