सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  झबरू)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – झबरू  ?

हमारा शहर अत्याधुनिकता की ओर पुरज़ोर अग्रसर हो रहा है और मेट्रो बनाने का काम भी तीव्र गति से चल रहा है। ऐसे में भीड़-भाड़वाले इस विशाल शहर में जब ट्रैफिक रुकती है तो इंसान चाहे तो एक पावर नैप ले ही सकता है।

सुबह के आठ बजे थे। इस समय दफ्तर जानेवालों की भीड़ एकत्रित हो रही थी और मैं अपनी बिटिया को एयरपोर्ट से लाने के लिए निकली थी। यात्रा लंबी थी और कई ट्रैफिक लाइट पर रुकने की मानसिक तैयारी मैं भी कर चुकी थी।

ट्रैफिकलाइट के पास गाड़ी रुक गई। गाड़ी के रुकते ही फूलवाले, कूड़ा रखने के पैकेटवाले और टिश्यूपेपर बॉक्स वाले गाड़ियों के आसपास काँच पर टोका मारते हुए घूमने लगे। सुबह का समय था तो इन सबके साथ नींबू और मिर्ची बाँधकर बेचनेवाले भी घूम रहे थे और भीड़ में खड़े टैक्सीवाले बहुनी के चक्कर में उन्हीं को अधिक महत्त्व दे रहे दे।

मेरी नज़र रास्ते की बाईं ओर थी क्योंकि बाहर बिकनेवाली किसी भी वस्तु में मुझे रुचि नहीं थी। बाईं फुटपाथ पर एक आठ -नौ  बरस का लड़का अपनी  बाईं कमर पर साल दो साल के बच्चे को पकड़े हुए था और उसके दूसरे हाथ में एक पन्नी में गरम चाय थी। शायद सुब-सुबह अपने माता पिता के लिए किसी टपरी से चाय ले जा रहा था।

वह भी रास्ता पार करने के लिए ही खड़ा था पर उसे जल्दी न थी। वह अपनी कमर को इस तरह हिलाता कि गोद का बच्चा थिरक उठता और साथ ही खिलखिलाता। अपने छोटे भाई को खिलखिलाते देख उसका कमर नचाना बढ़ गया और वह और स्फूर्ति से उसे हँसाता।

मुझे उस दृश्य को देखने में आनंद आ रहा था। दरिद्रता में संतोष की छवि का दर्शन मिल रहा था। प्रसन्न रहने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं इस बात को यह बालक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। मेरी दृष्टि बस उस भीड़ में उसी को देख पा रही थी। मौका मिलते ही वह रास्ता पार कर अपनी माँ के पास पहुँचा जहाँ वह गुलाब के फूलों का गुच्छा बना रही थी।

गाड़ी चल पड़ी और मेरी आँखों के सामने अचानक झबुआ खड़ा हो गया। झबुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती का रहनेवाला था। उसका बाप कानपुर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था। उसकी पत्नी का जब देहांत हो गया तो वह अपने बच्चे को कानपुर ले आया।

उन दिनों मेरी दीदी और जीजाजी कानपुर में ही रहा करते थे। शिक्षा विभाग में उच्च पदस्थ थे तो बहुत बड़ा बँगला जो बाग- बगीचे से सुसज्जित था  और नौकर – चाकर की सुविधा सरकार की ओर से उपलब्ध थी। झबरू का बाप उनके बंगले के बाहरी हिस्से में जहाँ एक गेट हमेशा बंद रहता था वहाँ अस्थाई व्यवस्था कर रहा करता था। प्रातः हैंडपंप के पानी से नहाता, अपनी धोती धोकर फैला देता और सत्तू खाकर निकल पड़ता। उसकी गठरी वहीं पड़ी रहती। दीदी को अगर पास – पड़ोस में जाना होता तो वह उसी रिक्शेवाले के साथ चली जाया करती थी।

दीदी का लड़का साल भर का ही था। झबरू का बाप एक दिन झबरू को लेकर दीदी के पास आया और झबरू को नौकर रखने के लिए कहा। आठ -नौ साल का बच्चा क्या काम करेगा ? पर झबरू के बाप की परेशानी देखकर उसे घर पर रख लिया गया। उसे दीदी के बच्चे को संभालने का काम दिया गया। वह दिन भर बच्चे के साथ खेलता उसे अपनी कलाबाज़ी दिखाता, उसे अपनी गोद में लेकर बगीचे में घूमता और दोनों खूब खुश रहते।

झबरू को बागवानी का शौक था तो वह माली का एसिस्टेंट भी बन गया था। धनिया, पुदीना, हरीमिर्च, पालक, मेथी टमाटर पत्तागोभी आदि घर के बगीचे में उगाए जाते। झबरू का काम बड़ा साफ़ था। वह बगीचे से झरे हुए पत्ते उठाकर बगीचा साफ़ रखता। लॉन पर रखी बेंत की कुर्सी मेज़ साफ़ करता। शाम को लॉन में पानी डालता और दीदी जीजाजी की सेवा में जुटा रहता।

दीदी का लड़का स्कूल जाने लगा, स्कूल ले जाने -लाने की ज़िम्मेदारी भी झबरू के पिता ने सहर्ष ले ली। इधर झबरू भी बड़ा होने लगा। दीदी के हाथ के नीचे कई छोटे -बड़े काम करने लगा। उन दिनों गरीब बच्चों को पढ़ाने -लिखाने की बात पर लोग खास विचार नहीं करते थे। पर झबरू जब सोलह वर्ष का हुआ तो जीजा जी ने उसे एक बढ़ई के हाथ के नीचे काम करने के लिए भेज दिया।

वह अभी भी उनके घर में ही रहता था। घर बुहारना, पोछा लगाना, रसोई में धनिया, मेथी पालक, पुदीना साफ़ कर देना, चूल्हा जलाना (उन दिनों गैस का प्रचलन नहीं था) आलू छील देना सब्ज़ी धोकर रखना आदि सारे काम कर नहा-धोकर नाश्ता खाकर टिफन लेकर काम सीखने जाने लगा।

झबरू बहुत हँसमुख, खुशमिजाज़, मिलनसार तथा  हुनरमंद लड़का था। हर काम को सीखने की उसकी तीव्र इच्छा और त्वरित सीख लेने की योग्यता ने जीजाजी की आँखों में उसे विशेष स्थान दिया था। दीदी के लिए वह घर का सेवक मात्र था पर हाँ दीदी उसकी अच्छी देखभाल करतीं और स्नेह भी।

जिस बच्चे को झबरू गोद में लेकर घूमता था वह भी अब बड़ा हो गया था। वह अब नौवीं में पढ़ता था और झबरू शायद बाईस -तईस साल का था। कानपुर के किसी बड़े कॉलेज में फर्नीचर बनाने का बड़ा कॉन्ट्रेक्ट हीरालालको दिया गया। झबरू हीरालाल के पास ही काम सीखता था।

झबरू ने जी-जान से सभी प्रकार के फर्नीचर बनाए। मेज़, अलमारी, साहब के लिए शानदार कुर्सी, ग्रंथालय के लिए डेस्क सब कुछ नायाब डिज़ाइन के बनाए गए और झबरू की कुशलता स्पष्ट दिखाई दी। उसकी खूब प्रशंसा भी की गई। अब रोज़गार भी खूब बढ़ गया।

झबरू की उम्र बढ़ती रही, कामकाज भी अच्छा करने लगा, हाथ में अच्छा रुपया पैसा आ गया तो उसने गंगा के किनारे एक खोली किराए पर ले ली। आवश्यक वस्तुएँ जुटाकर कमरा सजाया और बाप को लेकर वहाँ रहने गया।

झबरू मेरी दीदी को माई कहता था और जीजाजी को बड़े बाबू। उसके जाने पर जिस कमरे में वह रहता था उसकी सफ़ाई की गई। एक लोहे के बक्से में बढ़ई के काम के औज़ार मिले। कुछ काँच के रंगीन टुकड़े, कँचे, गंगा के गोल-  गोल पत्थर, गुलेल, भैया जी के ड्रॉइंग पेपर के कई कागज़ जिस पर फ़र्नीचर के पेंसिल से डिज़ाइन निकाले गए  थे। कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ चिपका कर डिज़ाइन बनाए गए पुराने कागज़ भी मिले। कानपुर की मिट्टी थोड़ी सफेद सी होती है जिसमें बालू भी मिश्रित रहती है। मिट्टी के कई गोले मिले जिन्हें सुखाकर उस पर कई सुंदर आकृतियाँ उकारी गई  थीं। मसूरदाल चिपकाकर एक  सुंदर स्त्री का चित्र मिला जो देखने में कुछ कुछ मेरी दीदी जैसा ही था। अगर झबरू को पढ़ना लिखना आता तो शायद वह उस चेहरे के नीचे माई लिख डालता। सभी वस्तुओं को देखकर दीदी के नैन डबडबा उठे थे। एक योग्य लड़के को जीवन में खास अवसर न दे पाने का शायद उन्हें पश्चाताप भी होने लगा था।

झबरू जब से पिता को लेकर गंगा पार रहने गया था तब से वह भी फिर कभी लौटकर नहीं आया। कई  वर्ष बीत गए। दीदी का लड़का पढ़ने के लिए लखनऊ यूनिवरसिटी चला गया तो जीजाजी ने अपना भी ट्रांसफर करा लिया।

एक दिन घर के दरवान ने आकर कहा कि कोई वृद्ध व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है। अपना नाम वह रसिकलाल बताता है। जीजाजी तुरंत बाहर बरामदे में आए। वृद्ध कोई और नहीं झबरू का बाप था। जीजाजी को देखते ही पैर पकड़कर फूटफूटकर वह रोने लगा। शांत होने पर बोला उसके बेटे को पुलिस पकड़कर ले गई। कृपया उसे बचा लीजिए। मेरा बेटा निर्दोष है। कोई उसे फँसा रहा है।

जीजाजी की सरकारी दफ्तरों के उच्च पदस्थ लोगों के साथ न केवल परिचय था बल्कि उठना -बैठना भी था। पता चला कि झबरू खूब पैसा कमाने लगा तो गलत लोगों के संगत में रहने लगा था। वह वेश्याओं के यहाँ भी आना जाना रखता था। किसी एक पर उसका दिल आया था और वह नहीं चाहता था कि और कोई ग्राहक उसके पास जाए। बस एक दिन हाथापाई हो गई  और उसने आरी से अपनी प्रेमिका और ग्राहक दोनों को मार डाला।

पुलिस पकड़कर ले गई। बाप को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि झबरू ऐसा काम कर भी सकता था। पर अब हत्या का आरोप था वह भी एक नहीं दो हत्याओं का। रसिकलाल बेटे को बचाना चाहता था पर जीजाजी को जब पता चला कि उसे शायद फाँसी की सज़ा सुनवाई जाएगी तो उन्होंने उसे यह कहकर लौटा दिया कि उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।

साल दो साल बीत गए। एक दिन समाचार पत्र में झबरू की फाँसी का समाचार आया। जिस दिन उसे फाँसी दी गई उसके बाप को मृतदेह ले जाने के लिए बुलवाया गया। शाम हो गई पर वह न आया। रात के समय पता चला कि गंगा में पेट पर पत्थर बाँधकर  रसिकलाल ने आत्महत्या कर ली।

घटना तो बहुत ही पुरानी है पर आज ट्रैफिक पर खड़े उस खुशमिज़ाज बालक ने झबरू की यादें किसी फिल्म के रील की तरह आँखों के सामने घुमा दी। मैं झबरू से बहुत बार दीदी के घर मिल चुकी थी। आज उसे याद कर अनायास ही मेरे कपोलों पर अश्रु ढुलक पड़े।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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