श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 35 ☆

☆ कविता ☆ “तेरी फितरत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

जीने जाऊ गर तेरे पीछे

मुझे जिंदगी नहीं दोगे

आदत तेरी ऐसी

के मौत भी नहीं दोगे

*

उसूल तेरे ऐसे

सारा खेल तुम खेलते हों

हम खेलने जाए गर

तो जितने नहीं देते हों

*

क्या करें हम

ये कभी बताते नहीं हों

गर हातों पर हात रखें बैठे

तो नामर्द कहते हों

*

सब समझ कर

नासमझ बनते हों

खुलकर कहने जाऊ

तो वाहायात कहते हों

*

अब सब छोड़ बस फ़कीर ही बनूं

उससे तुम्हारी ही जीत हों

मगर फितरत नाज़ुक तुम्हारी

अब हम जो नहीं…

तो ख़ुद पर कहर बरसाते हों..

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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