श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “न ख रे…“।)
अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे… श्री प्रदीप शर्मा
न खरे होते हैं, न खोटे होते हैं, नखरे, सिर्फ नखरे होते हैं। नखरों पर किसी का कॉपीराइट नहीं, बालिग, नाबालिग, स्त्री – पुरुष, बड़े- बूढ़े, समझदार – सयाने, स्वदेशी – विदेशी तो ठीक, यहां तक कि संत महात्मा भी नखरों में किसी से पीछे नहीं रहते। लेकिन न जाने क्यूं, नखरे महिलाओं, रूपसी स्त्रियों, और नाजुक सुंदरियों को ही शोभा देते हैं।
पुरुष तो सिर्फ भाव खा सकता है, नखरे तो स्त्रियों को ही शोभा देते हैं। हमें नहीं, ज़रा शैलेंद्र जी और किशोर कुमार जी का नया अंदाज़ देखिए, और हमें माफ़ कीजिए ;
नखरे वाली, नखरे वाली
देखने में देख लो है कैसी भोली भाली।
अजनबी ये छोरियां
दिल पे डालें डोरियां
मन की काली …
शहर की आधुनिक नारियों को छोड़िए, आइए गांव चलें। गोरी चलो न हंस की चाल, ज़माना दुश्मन है, तेरी उमर है सोलह साल, जमाना दुश्मन है।
क्या पुरुषों के शब्दकोश में ऐसे शब्द पाये जाते हैं ;
– उई मां उई मां, ये क्या हो गया !
उनकी गली में दिल खो गया ….
या फिर ;
दैया रे दैया, लाज मोहे लागे, पायल मोरी बाजे।।
अब बेचारा पुरुष इतनी नज़ाकत और मासूमियत कहां से लेकर आए। जिसका काज उसी को साजे। नखरे करना, हमारे बस का नहीं। हम तो खोटे ही भले।।
हमारे स्कूल में एक बिड़वई सर थे, वे जब हमारी ओर पीठ करके ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते थे, तो उन्हें दोनों पांवों पर खड़े रहने में कुछ परेशानी होती थी, अतः उनका आधा भार एक नितंब को वहन करना पड़ता था। जब थक जाते, तब दूसरे नितंब की सेवाएं ली जाती। चलते वक्त भी पीछे से उनकी मटकती चाल हमारे लिए किसी मतवाली चाल से कम नहीं थी। उनकी अनुपस्थिति में लड़के लोग, क्लास में उनकी चाल की नकल निकाला करते थे। रुस्तम की चाल तो हमने नहीं देखी, लेकिन बिड़वई सर की चाल आज तक याद है।
नखरे कौन नहीं करता ! खाने पीने के नखरे, पहनने के नखरे, पसंद नापसंद, नखरे का ही दूसरा रूप है। लेकिन हमारे जैसे वैराग्य शतक वाले श्रृंगार शतक के बारे में क्या जानें। आईने के सामने खड़े हुए, शेव की, और चलते बने। होठों पर कभी लिपस्टिक और उंगलियों में नेल पॉलिश कभी लगाई हो, कानों में कभी झुमका पहना हो, तो नखरे दिखाएं। जब घर से बाहर निकलते हैं तो यह भी होश नहीं रहता, पांव में चप्पल पहनी है या जूते। और वहां महिलाओं को मैचिंग का कितना खयाल रखना पड़ता है। नखरे नहीं, इंसान की मजबूरी है। हम समझ सकते हैं, दुनिया इसे नखरा कहे तो कहे।।
नारियों के नखरों के साथ अगर लाज जुड़ जाए, तो सोने में सुहागा !
लाज शब्द पुरुषों को शोभा नहीं देता। उनके लिए तो फ्रेंड्स लॉज ही काफी है। औरतों को जितना नाज़ नखरों पर है उतनी ही अपनी लाज पर भी। इसीलिए पुरुष अपनी पत्नियों के नाज नखरे खुशी खुशी उठाता है। हम तो अपनी कहते हैं, जग की नहीं !
अगर श्रीमती जी के नाज नखरे नहीं उठाए, तो वे आसमान सर पर उठा लेती हैं। चलो बुलावा आया है, सुबह सुबह एक कप गर्म चाय का प्याला बुलाया है…!!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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