श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चंदू पारखी…“।)
अभी अभी # 341 ⇒ चंदू पारखी… श्री प्रदीप शर्मा
अगर हमारे जीवन में टीवी और फिल्म जैसा माध्यम नहीं होता, तो क्या हम चंदू पारखी जैसी प्रतिभाओं को पहचान पाते। मराठी रंगमंच और हिंदी सीरियल व्योमकेश बख्शी से अपनी पहचान बनाने वाले इस कलाकार की कल २६वीं पुण्यतिथि थी।
इंदौर में जन्मे इस शख्स के बारे में मैं केवल इतना ही जानता हूं कि सन् ६४-६५ में हम दोनों एक ही स्कूल श्री गणेश विद्या मंदिर के छात्र थे। मुझे याद नहीं, कभी हमारी आपस में बातचीत भी हुई हो, क्योंकि चंदू एक अंतर्मुखी और एकांतप्रिय छात्र था। हमेशा कमीज पायजामा पहनने वाला, अक्सर उदासीन और कम बोलने वाला और अपने काम से काम रखने वाला।।
स्कूल कॉलेज में कौन आपका दोस्त बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुछ नाम और चेहरे किसी खासियत के कारण स्मृति पटल पर कायम रहते हैं। उचित अवसर पर कुछ प्रकट हो जाते हैं, और शेष जाने कहां गुम हो जाते हैं ;
पत्ता टूटा डाल से
ले गई पवन उड़ाय।
अबके बिछड़े कब मिलेंगे
दूर पड़ेंगे जाय।।
और यही हुआ। चंदू पारखी जैसे कई साथी जीवन के इस सफर में कहां खो गए, कुछ पता ही नहीं चला। वह तो भला हो कुछ हिंदी टीवी सीरियल का, जिनमें अचानक चंदू पारखी वही चिर परिचित अंदाज में दिखाई दिए। पहचान का भी एक रोमांच होता है, जो किसी भी परिचित चेहरे को ऐसी स्थिति में देखकर महसूस किया जा सकता है। अरे ! यह तो अपना चंदू है, ठीक उसी अंदाज में, जैसे हमारे प्रदेश के बाहर हमें कोई MP 09 वाला वाहन देखकर होता है, अरे यह तो अपने इंदौर की गाड़ी है।
उनके पौत्र यश पारखी के अनुसार ;
चंदू पारखी 150 रुपए लेकर मुंबई की ओर निकल पड़े थे… चंदू पारखी का जीवन कठिनाइयों से भरा था। कलाकार ने अपने अंदर के अभिनय प्रतिभा को उम्दा तरीके से समझ लिया था। उन्होंने ठान लिया था कि अब अपना जीवन रंगभूमि को समर्पित करूंगा। मात्र 150 रुपए अपने कपड़े की झोली में रखकर अपनी मंजिल को पाने के लिए चल दिए। वे कला की नगरी मुंबई पहुंच गए। नए लोग और नई चुनौतियों के बीच हमेशा ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम गुनगुनाते थे। इस गाने का उन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। वे कपड़े की झोली में लहसुन की कलियां रखते थे। जब भी भूख लगती एक-दो कलियां खा लिया करते थे। मायानगरी में पहला नाटक आचार्य अत्रे द्वारा लिखित तो मी नव्हेच में काम करने का मौका मिला। इसमें प्रमुख भूमिका में नटश्रेष्ठ #प्रभाकर_पणशीकर थे। नाटक में चंदू पारखी जी ने न्यायाधीश की भूमिका निभाई थी। उन्हें असली पहचान निष्पाप नाटक के बाद मिली।
बड़ी कठिन है डगर अभिनय की। अवसर कभी दरवाजे पर दस्तक नहीं देते। प्रतिभाओं को ही अवसर तलाशना पड़ता है। जिन दर्शकों ने टीवी पर जबान संभाल के सीरियल देखा है, उन्हें चंदू परखी की प्रतिभा के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मराठी सस्पेंस फिल्म अनपेक्षित में भी चंदू पारखी के अभिनय को बहुत सराहा गया।।
आज जब मैं टीवी सीरियल जबान संभाल के, के चंदू पारखी के रोचक और मनोरंजक पात्र चतुर्वेदी के किरदार को देखता हूं, और स्कूल के सहपाठी चंदू से उसकी तुलना करता हूं, तो दोनों में जमीन आसमान का अंतर होते हुए भी, कहीं ना कहीं, अभिनय की संभावनाओं का अनुभव तो हो ही जाता है।
बस चंदू पारखी को कोई नटश्रेष्ठ प्रभाकर पणशीकर जैसा पारस मिल जाए, तो वह सोना क्या हीरा हो जाए। अफसोस, इन प्रतिभाओं की उम्र विधाता कम ही लिखता है। १४ अप्रैल १९९७ को मेरा यह भूला बिसरा सहपाठी, मुझसे मिले बिना ही बिछड़ गया। बस स्मृति शेष में केवल श्रद्धा सुमन ही बचते हैं ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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