सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘नारी नयी–व्यथा वही’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ

पुस्तक   : नारी नयी–व्यथा वही

कवयित्री : डॉ• मुक्ता

प्रकाशन : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना

पृष्ठ संख्या : 150

मूल्य     : 299 रुपए

समीक्षक – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ 

☆ समीक्षा – मानवीय संवेदनाओं व जीवन मूल्यों की कसौटी पर नारी – “नारी नयी–व्यथा वही” ☆

विभिन्न विरोधाभासों, विषमताओं व विसंगतियों से भरे संसार में सामाजिक, नैतिक और मानवीय मूल्यों का पतन निरंतर होता रहा है और जहाँ कभी भी, कहीं भी अन्याय हुआ है,  उसका प्रभाव नारी मन पर गहराई से पड़ता है–चाहे लोगों की ग़लत सोच व मानसिकता हो या युद्ध का मैदान हो; नारी हमेशा कठोर दंश झेलती रही है, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहे हैं। नारी नयी हो या प्राचीन– पुरुष मानसिकता उसे निरंतर झकझोर कर रखती रही है–चाहे वह द्वापर की पंच भागों में विभाजित द्रौपदी हो या आधुनिक युग की निर्भया, नारी सदैव तिरस्कृत व प्रताड़ित रही है।

डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

डॉ• मुक्ता ने अपने सोलहवें काव्य-संग्रह ‘नारी नयी–व्यथा वही‘ में उपरोक्त विषय पर चिंतन-मनन किया है। वैसे तो नारी के प्रति संवेदनाशीलता से उनका रचना संसार अत्यंत समृद्ध है, क्योंकि यह उनका प्रिय विषय है। उन्होंने समाज में व्याप्त असत्य, अन्याय व प्रचलित कुरीतियों के साथ-साथ, विशेष रूप से नारी पर बेख़ौफ़ लेखनी चलाई है। स्पष्ट है, कमज़ोर समझे जाने के कारण नारी पर अत्याचार करना सुगम प्रतीत होता है। नारी व्यथा पर उन्होंने अत्यंत सरल और सहज शब्दों में स्त्री की बेबसी, विवशता व निरीहता को ढाला है। ‘अंतहीन मौन’,’ज़िन्दगी का सच’ जैसी कविताएं इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। वे औरत के अन्तर्मन की तुलना जलती व धुंधुआती लकड़ी से करती हैं और कठपुतली के समान आदेशों का पालन करते हुए वेबस, विवश, पराश्रिता व लाचार मानतीं हैं। परन्तु क्या आज की नारी वास्तव में अबला है ? ये विचार भी उसके मनोमस्तिष्क को उद्वेलित व आहत ही नहीं करते; सोचने पर विवश भी करते हैं।

जद्दोज़ेहद से भरी दुनिया में अपवाद हर जगह होते हैं। नारी भले ही अबला है, परंतु सबला बनने की अंधी दौड़ में कुछ नारियों के लड़खड़ाते कदम हृदय को झकझोरते हैं। आज के वातावरण में कवयित्री नारी के बदलते रूप को देख कर चिंतित है कि उसके कदम किस दिशा की ओर अग्रसर  हैं। वह उसके ग़लत दिशा में अग्रसर कदमों को रोकना चाहती है। उसके अबला रूप से जहाँ उन्हें हमदर्दी है, वहीं दूसरी ओर उसके मर्यादाहीन और संस्कारविहीन रूप पर चिंतित होने के साथ नारी के आदर्श रूप की परिकल्पना भी कवयित्री ने बखूबी की है। ’मूल्यहीनता’ जैसी कविताओं में आज के वस्तुवाद, भौतिकवाद, दम तोड़ती संस्कृति, नैतिक व सामाजिक मूल्यों के पतन से दूषित होते विकृत समाज के प्रति चिंता व्यक्त की है। समस्याएं अत्यंत गम्भीर हैं और उनका निदान होना असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। क्या प्रेम में कभी विश्वासघात समाप्त हो पायेगा? क्या नारी के प्रति अत्याचार, दुष्कर्म व हत्या के हादसों पर अंकुश लग  पायेगा? स्वयं को सबला प्रदर्शित करने की धुन और आधुनिकता की दौड़ में उछृंखल, अमर्यादित व संस्कारहीन होती नारी को रोक पाना क्या सम्भव हो पाएगा? समाज में विभिन्न शाश्वत् समस्याएं सदा से रही हैं और भविष्य में भी रहेंगी। ये सामाजिक विसंगतियाँ व विद्रूपताएं संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं और उद्वेलित व व्यथित करतीं हैं।

‘नया दृष्टिकोण ‘में वे अपने मन से वादा करना चाहती हैं कि वे अब औरत के बारे में नहीं लिखेंगी, उसकी व्यथा-कथा का बयान नहीं करेंगी, लेकिन वे उसकी दशा पर लेखनी चलाए बग़ैर रह नहीं पातीं। सतयुग की अहिल्या हो या त्रेतायुग की सीता या द्वापर की द्रौपदी व गांधारी–कवयित्री ने ऐसी प्राचीन नारियों की बेबसी का जहाँ स्मरण किया है, वहीं अपने लिए नवीन राह खोजती ‘खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ’ को आधुनिकता और स्वतंत्रता का रूप स्वीकारने वाली निरंकुश नारी का चित्रण भी किया है। परन्तु नारी का अमुक रूप डॉ• मुक्ता को हेय, त्याज्य व निंदनीय भासता है। कवयित्री उन्हें संस्कारित व मर्यादित रूप में देखना चाहती है। अबला नारी के प्रति जहाँ उन्होंने अस्तित्व की रक्षा हित उठ खड़े होने और अबला का लबादा उतार फेंकने का आह्वान किया है, वहीं मर्यादा की सीमाएँ लाँघती स्त्रियों के प्रति रोष भी प्रकट किया है। ‘टूटते संबंध‘ व ’दोषी कौन’ कविता में वे इस प्रश्न का उत्तर तलाशती हैं। ‘निर्भया‘ के प्रसंग पर इस पुस्तक में दो रचनाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें अपराधियों को उचित व शीघ्र सज़ा दिलाने के कानून को प्रभावी बनाने और उसकी उचित अनुपालना पर ज़ोर दिया है।

नारी ईश्वर की सुंदर व प्रेम करने वाली सर्वश्रेष्ठ व अप्रतिम रचना है। उसका शरीर खिलौना या उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि ईश्वर के रचना संसार में सहयोग देने वाला ममतामयी सर्वोत्तम रूप है । नारी में माँ व बहिन का अक्स क्यों नहीं देखा जाता– विचारणीय है। ‘एसिड अटैक‘ जैसी कविताएँ घृणित ज़ुल्मों की शिकार नारी जाति के प्रति संवेदनाएं उकेरती हैं तथा अपने देश में इस तरह की घटनाओं की सज़ा ‘जैसे को तैसा’ पर अमल करने की पैरवी करती हैं। दूसरी ओर ‘तुम शक्ति हो’,’ऐ नारी!’ जैसी कविताएं उसे साहसी बन विषम परिस्थितियों का सामना करने को प्रेरित करती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे नारी को अंतर्मन में झाँकने व आत्मावलोकन करने का सुझाव भी प्रदान करती हैं।

‘पहचाना मैम’ और ‘मर्मान्तक व्यथा’ में उन सभी उपेक्षित, तिरस्कृत व प्रताड़ित पात्रों के विषय में अवगत कराया गया है, जिन्हें देख व पढ़-सुनकर लोग क्षण भर में भूल जाते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे समाज के हर वर्ग की पीड़ा को उजागर करना चाहती हैं। यही नहीं ‘दर्द का दस्तावेज़’ में कश्मीर के बारे में लिखा है, जो कश्मीरी पंडितों व वहाँ की महिलाओं के दु:ख-दर्द का दस्तावेज़ है क्योंकि उन पर होने वाले ज़ुल्म व अत्याचारों की दास्तान के बारे में जानकर रूह़ काँप जाती है। अपने ही देश में बेघर होना और वर्षों तक शरणार्थियों का जीवन बसर करना मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है और उन विकराल समस्याओं का एक लम्बे अंतराल तक समाधान न निकल पाना अत्यंत गम्भीर व विचारणीय है? परंतु धारा 370 के हटने पर कवयित्री का आशावादी दृष्टिकोण विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उनका चिंतन संसार इतना विशद है कि उनकी पैनी दृष्टि चहुँओर पहुँचती है।

अंत में मैं यही कहूंगी कि डॉ• मुक्ता ने जिस तरह से अधिकांश रचनाओं में नारी व्यथा को संवेदना की पराकाष्ठा तक उकेरा है, शायद ही किसी अन्य कवि ने केवल नारी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों पर लेखनी चलाई हो। अपने इस भगीरथ प्रयास के लिए वे वंदनीय हैं और विशेष सम्मान की अधिकारिणी हैं।

समीक्षक : आभा कुलश्रेष्ठ, गुरुग्राम।

आधुनिक युग की निर्भया, प्रियंका व गुड़िया

©  सुश्री शकुंतला मित्तल

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार, गुरुग्राम

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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