श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जी और जान…“।)
अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान… श्री प्रदीप शर्मा
क्या जी और जान एक ही ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें जान है,वह ही तो जीव है। जान से ही तो प्राणियों का जीवन है।
जी और जान को जानने,समझने के लिए,आप चाहें तो जी को मन और जान को प्राण
भी कह सकते हैं।
जी का दायरा बड़ा विस्तृत है,जब कि बेचारी जान तो नन्हीं सी है,लेकिन इसी जान से तो यह जहान है। जी का विस्तार जिजीविषा तक है और अगर इस दुनिया से जी भर जाए तो ,अब जी के क्या करेंगे,जब दिल ही टूट गया।।
उधर दूसरी ओर यह हालत है,वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। साफ साफ क्यों नहीं कहते कि किसी ने आपका जी चुरा लिया है। यह जी ही कभी जिया बन जाता है,तो कभी हिया। लागे ना मोरा जीया।
ये कवि और शायर लोग शब्दों से खेलते हैं,अथवा इंसान के जज़्बातों से,कुछ पता ही नहीं चलता। जरा इन महाशय को देखिए ;
जान चली जाए
जिया नहीं जाए।
जिया जाए तो फिर
जिया नहीं जाए।।
जीवन की कड़वी सच्चाई तो यही है कि जी जान एक करके ही जीवन में आगे बढ़ा जाता है। सफलता यूं ही किसी के पांव नहीं चूम लेती। लेकिन यह भी सच है कि निराशा और अवसाद के क्षणों में यही जी इतना भारी हो जाता है, कि इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।
यही जी कभी खास बन जाता है,तो कभी आम। जब जी करता है,मन की जगह विराजमान हो जाता है। कभी राग द्वेष में उलझ जाता है,तो कभी मौज मस्ती में डूबा रहता है।।
यही जी कभी मन है तो कभी दिल और जब मूड में आ जाए तो फिर यह किसी के वश में नहीं। कभी किसी को जी भर के गालियां दे दी तो कभी किसी को जी भर के आशीर्वाद। फिलहाल तो राजनीति में एक दूसरे को,जी भर के कोसने का चलन जोरों पर है।
कौन नहीं चाहता,जी भर के जिंदगी जीना। क्या चाहत से कभी किसी का जी भरा है। जी लो,जी भर के जिंदगी,कल किसने देखा है। इस जान के रहते ही आप कुछ जान सकते हो। इसलिए अगर जी को लगाना ही है तो कुछ जानने में लगाएं,जान सके तो जान। और कुछ तो हमारे बस में नहीं जानना,जी और जान के बारे में,बस ;
जी चाहता है,
खींच लूं तस्वीर आपकी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈