श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आभासी रिश्ते…“।)
अभी अभी # 371 ⇒ आभासी रिश्ते… श्री प्रदीप शर्मा
फेसबुक के रिश्ते कथित रूप से आभासी होते हैं, फिर भी उनमें कहीं ना कहीं असलियत अथवा वास्तविकता नजर आ ही जाती है।
मुझे याद आ रहे हैं, मेजर वर्मा, जिनसे मैं आज से ४५वर्ष पूर्व अपने बैंकिंग कार्यकाल के दौरान मिला था। आज मेजर वर्मा कहां हैं, हैं भी अथवा नहीं, मुझे कुछ पता नहीं।।
उनसे बहुत कम वक्त में ही इतना आत्मीय संबंध हो गया था कि शाम के फुर्सत के क्षणों में वे टहलते टहलते, हाथ में छड़ी लिए, मेरे निवास तक आ जाते थे। वे इतने वृद्ध नहीं थे, कि उन्हें लाठी का सहारा लेना पड़े, लेकिन कुत्तों से बचने के लिए छड़ी उनका एकमात्र विकल्प था।
आपसी बातचीत में अक्सर उनके परिवार का यदाकदा जिक्र आ ही जाता था। उनके एक सुपुत्र कैप्टन भरत वर्मा दिल्ली में पब्लिशर थे और दूसरे पुत्र श्री राज वर्मा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, भोपाल में तब कार्यरत थे।।
मैं उनके परिवार के किसी सदस्य से मिल नहीं पाया, इंदौर में वे अकेले ही एक किराए के मकान में निवास करते थे। कुछ समय के पश्चात् ही वे वापस हमेशा के लिए दिल्ली प्रस्थान कर गए। तब फोन की सुविधा इतनी आम नहीं थी, फिर भी कुछ समय तक हमारा आपस में पत्र व्यवहार चलता रहा।
कब हमारा यह संपर्क भी टूटा, कुछ याद नहीं, लेकिन वे स्मृति में आज भी हैं। फेसबुक पर अनायास एक नाम उभर कर आया, राज वर्मा, और मुझे उनके पुत्र का स्मरण हो आया। ये राज वर्मा भी भोपाल में ही स्टेट बैंक में कार्यरत अवश्य निकले, लेकिन इनका मेजर वर्मा के पुत्र राज वर्मा से कोई लेना देना नहीं था।।
एक अपरिचित, अनजान रिश्ते ने संयोगवश दूसरे आभासी रिश्ते को मुझसे जोड़ दिया। हमसे कब कौन मिलता है, और कब कौन बिछड़ता है, कुछ कहा नहीं जा सकता।
फेसबुक के राज वर्मा आज मेरे प्रिय फेसबुक मित्र हैं। इनकी साहित्यिक यात्रा बड़ी लंबी है और पुस्तकों से इन्हें विशेष प्रेम है। इनसे मिलने का कभी योग भले ही नहीं आया हो, लेकिन फेसबुक की एक और परिचित शख्सियत हेमा बिष्ट जी इनसे मिल चुकी हैं।।
हेमा बिष्ट जी से भी मैं कभी नहीं मिला, लेकिन बातचीत के दौरान उन्होंने जिक्र छेड़ा कि वे मेरे शहर इंदौर में कभी तीन वर्ष के लिए रह चुकी हैं। क्या आभासी खुशी भी होती है। आज वे आस्ट्रेलिया में हैं, लेकिन कभी वे मेरे शहर इंदौर में थी।
रिश्तों में करीबी का अहसास आभासी नहीं होता, हम कितने करीब आ जाते हैं, केवल आभास से। इसे आप स्वप्न भी नहीं कह सकते। जिस तरह हेमा जी लखनऊ जाकर राज जी से मिली, हमारी भी कभी ना कभी, कहीं ना कहीं भेंट संभव है, क्योंकि ;
छोटी सी ये दुनिया
पहचाने रास्ते हैं।
हम कभी तो मिलेंगे
कहीं तो मिलेंगे
तो पूछेंगे हाल।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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