श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खिलना और खुलना।)

?अभी अभी # 377 ⇒ खिलना और खुलना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिना खुले भी कभी कोई खिला है। एक कली अपने अंदर पूरे फूल को समेटे रहती है, पहले कली खिलती है, फिर फूल खिलता है। लेकिन यह सब

इतनी आसानी से नहीं हो जाता। धूप, हवा और पानी के अलावा उस पौधे की जड़ें भी जमीन में होती है।

एक फूल रातों रात नहीं खिलता। कई रातों की तपस्या के बाद, कई दिनों तक किसी पौधे को सींचने के बाद जब उसमें एक कली मुस्काती है, तब लगता है, तपस्या पूरी हो गई है।

फूल का खिलना उसका शबाब है। फूल कभी अधूरा नहीं खिलता। कभी गुड़हल के फूल को खिलते देखिए, वह कहां जाकर रुकेगा, कहा नहीं जा सकता। गुलाब की एक कली में खिलने की कितनी संभावना है, यह गुलाब ही तय करता है, उसकी भी अपनी प्रजाति होती है।।

फूल सब बगिया खिले हैं

मन मेरा खिलता न क्यूं।

फूल तो खुशबू बिखेरे

मैं रहा बदबूएं क्यूं।।

फूल खुशी का प्रतीक है।

फूल की खुशी भले ही पल दो पल की हो, लेकिन एक फूल में पूरी कायनात मुस्कुराती है। बद्रीनाथ के मार्ग में एक स्थान गोविंदघाट है, जहां से कुछ दूरी पर फूलों की घाटी स्थित है। उस घाटी का कोई माली नहीं, कोई मालिक नहीं। कोई देखे, ना देखे, कोई तारीफ करे ना करे, बर्फ के पिघकते ही यहां मानो स्वर्ग उतर आता है।

जीवन भले ही क्षणभंगुर हो, फूल कभी खिलना नहीं छोड़ता, एक कली कभी मुस्कुराना नहीं छोड़ती। आप फूल को तोड़ो, पांव तले कुचलो, उसको सुई चुभो चुभोकर हार बनाओ, उसे गुलदस्ते में सजाओ, वह उफ नहीं करता। मंदिर हो या किसी की कब्र, उसके सब्र का कोई इम्तहान नहीं ले सकता। जो सदा कांटों में खिलता हो, फिर भी मुस्कुराता हो, वह एक फूल ही हो सकता है, इंसान नहीं।।

कभी आपने बैलून यानी गुब्बारा फुलाया है। उसमें जितनी हवा हमारे मुंह से जाती है, वह फूलता जाता है,  बैलून फुलाने में बच्चों को बड़ा मजा आता है, और कभी कभी एक स्थिति ऐसी भी आ जाती है,  कि फुग्गा फूट जाता है। बच्चा पहले तो डरता है, और फिर रोने लग जाता है। एक गुब्बारा तक अपना शत प्रतिशत देने की कोशिश करता है।

तवे की रोटी को ही ले लीजिए, जब उसे सेंकने के बाद फुलाया जाता है, तो वह फूलकर कुप्पा हो जाती है, उसकी संपूर्णता ही उसकी गुणवत्ता की चरम सीमा है। एक खिला हुआ फूल, फूला हुआ गुब्बारा और फूली हुई रोटी हमें बहुत कुछ कहती है।

अपना श्रेष्ठ इस संसार को अर्पित करो, बिना किसी स्वार्थ अथवा प्रशंसा की भूख के।।

एक गायक का जब गला खुलता है, तो कहीं सहगल, तलत और रफी की तान गूंजती है तो कहीं लता, नूरजहां और शमशाद

अपनी आवाज के जलवे बिखेरती हैं। कितना कुछ खुलकर निखरता है, जब उस्ताद अल्ला रक्खा और पंडित रविशंकर की जुगलबंदी होती है।

कहीं कहीं, कुछ ऐसा है, जो अंदर दबा बैठा है, वह खुलकर बाहर नहीं आ रहा। बिना खुले, कुछ खुलता नहीं, खिलखिलाता नहीं। कहीं मन में गांठ है तो कहीं कोईदबा हुआ तूफान। इसके पहले कि सब्र का बांध टूटे, कुछ ऐसा जतन हो, कि मन का गुबार कम हो, दिल की बात जुबां तक आ जाए, सारे सायफन एक साथ खुल जाएं, और मन का कमल खिल उठे। बरसों से भारी मन, एकाएक फूल की तरह हल्का हो जाए और होठों पर यह गीत उतर आए ;

मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को

बेला महका हो,

बेला महका रे महका,  आधी रात को।

किसने बँसी बजाई आधी रात को

जिसने पलकें, हो

जिसने पलकें,  चुराई आधी रात को।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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