श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “धर्म ध्वजा…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 57 ☆ धर्म ध्वजा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पाप-पुण्य की

इस नगरी में

धर्म हमारी ध्वजा रही है ।

 

तिनका- तिनका जोड़ जतन से

एक घोंसला सुघर बनाया

ना जाने कब कौन शिकारी

की पड़ गई अमंगल छाया

 

छन कर आती

धूप नहीं अब

छाँव अँधेरे सजा रही है ।

 

मिलजुल कर बोया फसलों को

काट रहे हैं अपनी-अपनी

ढो-ढो कर रिश्तों की गठरी

पीठ हो गई छलनी-छलनी

 

हवा हुई बे-शर्म

यहाँ की

गंध सुवासित लजा रही है ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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