श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)।)

?अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नैतिक नियमों को आप यम नियम कह सकते हैं। आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति हमारी भौतिकता की देन है। अगर जीवन ही सादा होगा तो जीवन कितना फीका फीका होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब हमारा आचरण हमारे सिद्धांतों और आदर्श से मेल नहीं खाता, तो जीवन में कृत्रिमता और

बनावटीपन आ जाता है, सहजता कहीं गायब हो जाती है। कौन नहीं चाहता, अच्छा खाना और अच्छा पहनना। लेकिन जाने अनजाने सुविधाओं की आड़ में हमारे पास कई अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होता चला जाता है, और हम उनसे बेखबर रहते हैं। ।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, हम आविष्कार किया करते हैं, और हमारी आवश्यकताओं को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाते रहते हैं। मूल भूत सुविधा भी आवश्यकता का ही अंग है, लेकिन संपन्नता के साथ सुविधा का ग्राफ भी बढ़ता ही रहता है। छोटे मकान से बड़ा मकान और छोटी गाड़ी से बड़ी गाड़ी समय की भी मांग है, और संपन्नता की निशानी भी। लेकिन जब हर अनावश्यक चीज भी आवश्यक लगने लगे, तब जीवन से यम नियम गायब हो जाता है।

आइना हम रोज देखते हैं, लेकिन हमें आइना दिखाने वाले लोग कम ही होते हैं। असंग्रह और अपरिग्रह की दुहाई देते हुए जब एक दिन अनायास मैने अपने कपड़ों की आलमारी खोली तो मुझे कई ऐसे पुराने कपड़े नजर आए, जो केवल अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। पत्नी की अलमारी में तो मेरी नजर चली गई, कितनी अनावश्यक साड़ियां हैं, लेकिन अपनी अलमारी से मेरा साक्षात्कार मानो पहली बार हुआ हो। मुझे मेरा मुंह आईने में नजर आ गया, मुझे आज अपने गिरेबान में झांकना ही पड़ा, अपने हाथों से ही अपने कानों को उमेठना पड़ा। ।

एक पंछी को रोज अपने दाना पानी की व्यवस्था करनी होती है। रोजाना अपने बाल बच्चों का भी पेट भरना होता है। आप उसे अपरिग्रह का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि वह कल के लिए कुछ संग्रह कर ही नहीं सकता। इंसान की बात अलग है, उसे दो जून की रोटी की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। वह परिग्रह की श्रेणी में नहीं आता।

जो अपरिग्रह का पालन करते हैं, वे अनावश्यक वस्तुओं को नेकी के दरिए में बहा देते हैं। लेकिन संग्रह की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना इतना आसान भी नहीं। अपने किताबों के संग्रह से कौन मुंह मोड़ सकता है, तिजोरी और लॉकर में रखे गहनों का भी खयाल रखना पड़ता है। ।

कई घरों में आपको संग्रहालय नजर आ जाएंगे। किसी को जूतों का शौक तो किसी को टाइयों का। वॉर्डरोब होता ही काहे के लिए है। शान शौकत पर खर्च और धूमधाम से शादियां, हमारे समाज का ही प्रचलन है। कोई किसी का हाथ नहीं रोकता लेकिन फिर भी इसी समाज में कुछ लोग हैं जो फिजूलखर्ची को अपराध मानते हैं, और संयम और सादगी का जीवन व्यतीत करते हैं।

कल कॉलर ट्यून पर एक गीत बज रहा था, ये मोह मोह के धागे …. आगे के शब्द बेमानी हैं। समाज के नियम अपनी जगह हैं, हमारे जीवन के नियम हमें ही बनाने पड़ते हैं, खुद को अपनी ही कसौटी पर कसना पड़ता है, संयम, संतुलन के साथ तितिक्षा का भी अभ्यास करना पड़ता है। वैराग्य ना सही, विवेक का दामन तो थामना ही पड़ता है ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाए

तो क्या कीजे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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