श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 88 ☆ देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पिता शब्द सुनते ही अनुशासन का बोध होने लगता हैं। ऐसा हम इस दावे के साथ कह सकते है, कि पिताजी के पिता यानी हमारा दादा जी के समक्ष पिता जी की भी चूं नहीं निकलती थी।
पिता जी पच्चास वर्ष से ऊपर की आयु के होंगे, लेकिन दादा जी के समक्ष छोटे से युवा के समान पेश आते थे। दादा जी की दृष्टि भी बहुत कमजोर हो चुकी थी। प्रतिदिन जब देर रात्रि पिताजी दुकान को बढ़ा /मंगल कर घर आते तो दुकान की चाबियां और धन राशि की पोटली दादा जी को सम्मान पूर्वक दे दिया करते थे।
दादा जी परिवार के किसी भी सदस्य को बुला कर धन राशि और चाबियां घर की एक अलमारी में रख कर उसकी चाबी को अपने पास सहेज कर रख लेते थे।
हम सब भाई/ बहिनों ने वर्षों तक ये क्रम देखा और महसूस भी किया कि बड़े बुजर्गों का सम्मान और इज्ज़त कैसे की जाती है।
पिताजी की इन आदतों को देख कर हमारे में भी ये संस्कार कब आ गए, ज्ञात ही नहीं हुआ। ये सब संभव हुआ हमारे पिताजी के कारण, उनका अनुशासन पालन एक मिसाल हैं।
पिताजी की बराबरी तो नहीं कर सकते, परंतु उनके द्वारा स्थापित परंपराएं और परिवार के प्रति कर्तव्य प्रयंता के निर्वहन को जारी रखने के लिए कटिबद्ध हैं।
© श्री राकेश कुमार
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