श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
समीक्षा का शुक्रवार # 1
संजय दृष्टि – अंतरा (काव्य संग्रह) – कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक – अंतरा
विधा – कविता
कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी
पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज
रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।
विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-
पर
तुझे पता भी है?
पत्थर के बीच
झरना भी बहता है..!
कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-
चिता पर रखी लकड़ी पर,
एक पौधे ने
खुलकर अंगड़ाई ली..!
विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-
अब मैैं
तुम्हारी आँखों के आकाश से
नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-
आकाश में
घर तो बनता नहीं कभी..!
कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।
यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।
अभी कुछ शेष है,
देह के कंकाल में
जो मुक्त होना नहीं चाहता,
गहरा अंतर तक खुद गया है,
यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!
पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।
हर बार वह
झुठला दी जाती,
अपनी क़ब्र में
दफ़न होने के लिए..
समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।
विष पीकर
वह निखरती रही,
मीरा बनती रही..
कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।
मैं आँखें खोल देखती हूँ
तुम्हारे नीले पड़े होठों को,
तुम कुछ कहते नहीं,
बस उठकर चल देते हो,
मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..
इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।
इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-
शाश्वत-अशाश्वत की
सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ
जब भी लम्बी यात्रा
पर निकल पड़ता है..!
कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈