श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन पिता का…“।)
अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का… श्री प्रदीप शर्मा
एक दिन पिता का (father’s day)
माता पिता का बराबरी का सौदा होता है, अगर मदर्स डे है तो फादर्स डे भी। महिला दिवस की तर्ज पर पुरुष दिवस कब मनाया जाता है, शायद इन तथाकथित “days” यानी “दिनों” का कोई कैलेंडर उपलब्ध हो, क्योंकि कभी कभी तो एक ही दिन में दो दो days टपक जाते है।
खैर हमें इससे क्या, जिस तरह सुबह होती है, शाम होती है, इसी तरह कोई ना कोई day आता है, और चला जाता है। ऐसे ही पितृ दिवस यानी फादर्स डे कब आया और कब चला गया, हमें पता ही नहीं चला। हम भी कभी पिता थे, अब तो लोगों ने हमें अंकल से नाना जी और दादाजी बना दिया है। ।
हमने पिता को तो देखा है, लेकिन कभी परम पिता को नहीं देखा। पिता का और हमारा साथ 33 वर्ष का ही रहा। उसके बाद एक दिन हमारे पिता, परम पिता में विलीन हो गए, यानी हमारे सर से पिता का साया छिन गया और पिछले 42 वर्ष से हमें पिता का प्यार नहीं मिला। तब से हमने परम पिता को ही अपना पिता मान लिया है।
ईश्वर एक है, आप उसे खुदा कहें अथवा परम पिता परमेश्वर। लेकिन जिन अभागों ने अपने बाप को बाप नहीं माना, वे किसी पत्थर की मूरत को भगवान कैसे मान लेंगे। वास्तव में सबका मालिक एक का मतलब भी यही है, सबका बाप एक। ।
जिस तरह ईश्वर एक है, उसी तरह माता -पिता एक इकाई है, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और शायद इसीलिए उन्हें सम्मिलित रूप से पालक का दर्जा दिया गया है और साफ साफ शब्दों में कह दिया गया है, “त्वमेव माता च पिता त्वमेव”। अंग्रेजी में एक शब्द है spouse, जिसका प्रयोग पति पत्नी दोनों के लिए किया जाता है, यानी दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
पिताजी के गुजर जाने के बाद, जब तक माता का साया सर पर रहा, पिताजी का अभाव इतना नहीं खला, लेकिन मां के गुजर जाने के बाद महसूस हुआ, एक अनाथ किसे कहते हैं, और तब केवल नाथों के नाथ जगन्नाथ की शरण में जाना ही पड़ा। क्योंकि वही तो पूरे जगत का नाथ है। ।
जिंदगी तो ठहरती नहीं, लेकिन वक्त ठहर सा जाता है। अतीत में झांकने से अब क्या हासिल होना है, हां एक पछतावा जरूर होता है, क्योंकि हमने भी माता पिता की कदर जानी ना, हो कदर जानी ना।
शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष की व्यवस्था भी है। उस पखवाड़े में श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप ही श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्रद्धा का अर्पण ही वास्तविक तर्पण है। पछतावे की भरपाई है। भूल चूक लेनी देनी का सत्यापन है। उनके प्रति नतमस्तक होना, उस परम पिता परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होने के बराबर है। आज की पीढ़ी के लिए ही शायद यह गीत लिखा गया है ;
ले लो दुआएं
मां बाप की।
सर से उतरेगी
गठड़ी पाप की।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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